भारत की ब्राह्मणी
सरकारें हमेशा ही जाति और जातिवाद के
खिलाफ उठती हर आवाज का विरोध करती रही हैं. और यदि यह मुद्दा विश्व के सामने उठे तब तो इनका विरोध
देखते ही
बनाता है. गोलमेज कान्फरेन्स में पहली बार बाबासाहब ने
जाति और जातिवाद के कारण देश की बहुत बड़ी
आवादी की नरक बनी जिंदगी से विश्व को
रुवरु कराया था. जिसका विरोध गांधी,
मालवीय सबने किया था.
गांधी ने अपने अखबार 'हरिजन' के माध्यम
से भी पुरे विश्व को गुमराह किया. भारत में
वर्णव्यवस्था के कारण बहुजन के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार
की कभी अपने अखबार में
चर्चा नहीं की. ये सिलसला रुका नहीं. अब
भी जब जातीय भेदभाव और छुआछूत का मुद्दा संयुंक्त
राष्ट्र संघ में उठाया जाता है तो भारत सरकार तुरंत विरोध
करती है.
अभी भी यही हुआ है. 28 जनवरी 2016 को एक विस्तृत रिपोर्ट
'अल्पसंख्यक मामलों पर'
UN में रखी गई है. इसमें 'जातीय भेदभाव'
को 'वैश्विक त्रासदी' बताया है. इसमें
कहा गया है कि जाति व्यवस्था (भारत में वर्ण व्यवस्था), मानवीय गरिमा, समानता और
बंधुत्व के खिलाफ है. रिपोर्ट में यह सवाल उठाया
गया है कि कैसे, क्यों एक जाति
में पैदा लोग पूज्यनीय हो सकते
हैं जबकि दूसरी जाति में
पैदा लोग अस्पृशय.
लेकिन भारत की ब्राह्मणी
सरकारें इस बात को मानने के लिए तैयार
नहीं है. जबकि देश में हालात ऐसे हैं कि -
" बहुजन है तो समझो
जान से गया" बहुजन यदि छू ले सवर्ण की बाल्टी, तो बहुजन हाथ-पैर से गया.
बहुजन यदि मूत दे किसी ठाकुर के खेत में, तो बहुजन जान से गया.
बहुजन प्रतिबन्धित हैं नहीं ले सकते,सर्वनाजिक कुओं, नलों, नदी से पानी,यदि ले लिया तो समझो जान से गया.
यदि कोई बहुजन मुख्यमंत्री,बाबासाहब के नाम से बनाये कोई प्रेरणा स्थल,तो समझो सरकार से गया.
नया सवर्ण अफसर जब संभाले आफिस,तो पहले शुद्धिकरण करवाता है,यदि पिछला बहुजन अफसर तबादले पर गया. यदि प्रतिनिधित्व कानून से बहुजन तरक्की करें, तो निजीकरण की आड़ में प्रतिनिधित्व कानून गया. यदि एकलव्य अपनी स्वयं की प्रतिभा से,तीरंदाज बन किसी अर्जुन के लिए चुनौती बन जाये,तो एकलव्य का अंगूठा गया.
यदि कोई बहुजन