Apni Dukan

Friday 30 March 2018

गाहक के पैसे गबन करने पर एच डी ऍफ़ सी बैंक को लीगल नोटिस


जन उदय : अपनी सरकार की  गलत और  गैर-बुद्धिमता नीतिओ के कारण देश की अर्थ व्यवस्था को चौपट करने के बाद मोदी ने कंगाल पढ़े  सरकारी  बैंको में पैसा लाने के लिए नोट-बंदी जैसे घातक कदम का सहारा लिया हालत ये हुई देश की अर्थ्वाव्य्स्थ चरमरा गई . इसके बाद सरकारी बैंको में पैसा आय या नहीं लेकिन इस प्रक्रिया  का फायदा वह भी पूरा पूरा फायदा  निजी  बैंको  ने खूब उठाया   जम कर बलेंस न होने पर लोगो  के पैसे लुटे   बैंक  की हर कार्यवाही  यानी ए टी एम् से पैसे निकालना हो या कोई  और हर बात पर आम लोगो  के पैसे जम  कर लूट  रहे है .

ऐसा ही एक मामला  दिल्ली के सुरेंदर   का सामने आया है जिनका सेविंग  अकाउंट  एच  डी ऍफ़ सी  बैंक  की न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी  शाखा में है , इनकी बहन ने इन्हें दो हजार डॉलर  कनाडा  से  फरवरी   में भेजे लेकिन  




जो की बैंक  के खुद के  वैल्यू सर्टिफिकेट के अनुसार बैंक में ५ मार्च  २०१८  को आ गए  नियम अनुसार  सुरेंदर  के अकाउंट में यह पैसा पांच  मार्च  या छ  मार्च की सुबह आ जाने  चाहिए  थे लेकिन छ  तारीख को  पूछताछ  का  ईमेल करने के बावजूद  यह पैसा इनके अकाउंट में नहीं दिया गया बल्कि  ई मेल  का भी जवाब नहीं  दिया गया . और बार बार  पूछताछ  करने पर  बैंक ने यह पैसा ९ मार्च  को सुरेंदर  जी के अकाउंट में डाल  दिया जबकि ईमेल  का जवाब नहीं  दिया गया .

जब सुरेंदर   जी ने इस मसले को पैसे मिलने के बाद भी  इस मसले को नहीं छोड़ा  और बैंक  से पूछा  की  ऐसा क्यों किया गया   पैसे देने में इतनी देर  क्यों .  जबकि इस पैसे की वजह से मेरा  नुक्सान हुआ है  मानसिक  प्राताड़ना हुई  है और अपमान को  भी झेलना  पड़ा  है . तो बैंक ने अंत में माफ़ी मांगी  लेकिन सुरेंदर  को किसी  भी तरह  का कोई भी मुआवजा  देने से इनकार कर  दिया  जबकि  यही बैंक है अगर आप इनकी ई एम् आई न दो  तो हेवी पेनल्टी  और मोटा  ब्याज लगता है  तो क्या किसी  ग्राहक  को   अपने पैसे के बदले पेनल्टी और ब्याज मांगने का अधिकार नहीं ??  जबकि बैंक ने तो इस पैसे को बिना किसी  कारण  के रोके रखा और इस पैसे से धन कमाया , इसलिए मैंने बैंक  को लीगल नोटिस दे दिया है , सुरेन्द्र  ने बताया  


Thursday 29 March 2018

क्या संविधान लिखकर वाकई कोई कारनामा किया था बाबा साहेब ने? चलो इसबार सच्चाई जान लेते हैं।


1895 में पहली बार बाल गंगाधर तिलक ने संविधान लिखा था अब इससे ज्यादा मैं इस संविधान पर न ही बोलूँ वह ज्यादा बेहतर है, फिर 1922 में गांधीजी ने संविधान की मांग उठाई, मोती लाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना और पटेल-नेहरू तक न जाने किन किन ने और कितने संविधान पेश किये । ये आपस् में ही एक प्रारूप बनाता तो दूसरा फाड़ देता, दुसरा बनाता तो तीसरा फाड़ देता और इस तरह 50 वर्षों में कोई भी व्यक्ति भारत का एक (संविधान) का प्रारूप ब्रिटिश सरकार के सम्पक्ष पेश नही कर सके। उससे भी मजे की बात कि संविधान न अंग्रेजों को बनाने दिया और न खुद बना सके। अंग्रेजों पर यह आरोप लगाते कि तुम संविधान बनाएंगे तो उसे हम आजादी के नजरिये से स्वीकार कैसे करें। बात भी सत्य थी लेकिन भारत के किसी भी व्यक्ति को यह मालूम नही था कि इतने बड़े देश का संविधान कैसे होगा और उसमे क्या क्या चीजें होंगी? लोकतंत्र कैसा होगा? कार्यपालिका कैसी होगी? न्यायपालिका कैसी होगी? समाज को क्या अधिकार, कर्तव्य और हक होंगे आदि आदि..

अंग्रेज भारत छोड़ने का एलान कर चुके थे लेकिन वो इस शर्त पर कि उससे पहले तुम भारत के लोग अपना संविधान बना लें जिससे तुम्हारे भविष्य के लिए जो सपने हैं उन पर तुम काम कर सको। इसके बावजूद भी कई बैठकों का दौर हुआ लेकिन कोई भी भारतीय संविधान की वास्तविक रूपरेखा तक तय नही कर सका। यह नौटँकीयों का दौर खत्म नही हो रहा था,साइमन कमीशन जब भारत आने की तैयारी में था उससे पहले ही भारत के सचिव लार्ड बर्कन हेड ने भारतीय नेताओं को चुनौती भरे स्वर में भारत के सभी नेताओं, राजाओं और प्रतिनिधियों से कहा कि इतने बड़े देश में यदि कोई भी व्यक्ति संविधान का मसौदा पेश नही करता तो यह दुर्भाग्य कि बात है। यदि तुम्हे ब्रिटिश सरकार की या किसी भी सलाहकार अथवा जानकार की जरूरत है तो हम तुम्हारी मदद करने को तैयार है और संविधान तुम्हारी इच्छाओं और जनता की आशाओं के अनुरूप हो। फिर भी यदि तुम कोई भी भारतीय किसी भी तरह का संविधानिक मसौदा पेश करते हैं हम उस संविधान को बिना किसी बहस के स्वीकार कर लेंगे। मगर यदि तुमने संविधान का मसौदा पेश नही किया तो संविधान हम बनाएंगे और उसे सभी को स्वीकार करना होगा।


यह मत समझना कि आजकल जैसे कई संगठन संविधान बदलने की बातें करते हैं और यदि अंग्रेज हमारे देश के संविधान को लिखते तो हम आजादी के बाद उसे संशोधित या बदल देते। पहले आपको यह समझना आवश्यक है कि जब भी किसी देश का संविधान लागू होता है तो वह संविधान उस देश का ही नही मानव अधिकार और सयुंक्त राष्ट्र तथा विश्व समुदाय के समक्ष एक दस्तावेज होता है जो देश का प्रतिनिधित्व और जन मानस के अधिकारों का संरक्षण करता है। दूसरी बात किसी भी संविधान के संशोधन में संसद का बहुमत और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की भूमिका के साथ समाज के सभी तबकों की सुनिश्चित एवं आनुपातिक भागीदारी भी अवश्य है। इसलिए फालतू के ख्याल दिमाग से हटा देने चाहिए। दुसरा उदाहरण।

जापान एक विकसित देश है। अमेरिका ने जापान के दो शहर हिरोशिमा और नागासाकी को परमाणु हमले से ख़ाक कर दिया था उसके बाद जापान का पुनरूत्थान करने के लिए अमेरिका के राजनेताओं, सैन्य अधिकारियों और शिक्षाविदों ने मिलकर जापान का संविधान लिखा था। फरवरी 1946 में कुल 24 अमेरिकी लोगों ने जापान की संसद डाइट के लिए कुल एक सप्ताह में वहां के संविधान को लिखा था जिसमे 16 अमेरिकी सैन्य अधिकारी थे। आज भी जापानी लोग यही कहते है कि काश हमे भी भारत की तरह अपना संविधान लिखने का अवसर मिला होता। बावजूद इसके जापानी एक धार्मिक राष्ट्र और अमेरिका एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र होते हुए दोनों देश तरक्की और खुशहाली पर जोर देते हैं।

लार्ड बर्कन की चुनौती के बाद भी कोई भी व्यक्ति संवैधानिक मसौदा तक पेश नही कर सका और दुनिया के सामने भारत के सिर पर कलंक लगा। इस सभा में केवल कांग्रेस ही शामिल नही थी बल्कि मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा जिसकी विचारधारा आज बीजेपी और संघ में सम्मिलित लोग थे। राजाओं के प्रतिनिधि तथा अन्य भी थे। इसलिए नेहरू इंग्लैण्ड से संविधान विशेषज्ञों को बुलाने पर विचार कर रहे थे। ऐसी बेइज्जती के बाद गांधीजी को अचानक डॉ अम्बेडकर का ख्याल आया और उन्हें संविधान सभा में शामिल करने की बात की।

इस समय तक डॉ अम्बेडकर का कहीं कोई जिक्र तक नही था, सरदार पटेल ने यहाँ तक कहा था कि डॉ अम्बेडकर के लिए दरबाजे तो क्या हमने खिड़कियाँ भी बन्द की हुई है अब देखते हैं वो कैसे संविधान समिति में शामिल होते हैं। हालाँकि संविधान के प्रति समर्पण को देखते हुए पटेल ने बाबा साहेब को सबसे अच्छी फसल देने वाला बीज कहा था। कई सदस्य, कई समितियां, कई संशोधन, कई सुझाव और कई देशों के विचारों के बाद केवल बीएन राव के प्रयासों पर जिन्ना ने पानी फेर दिया जब जिन्ना ने दो दो संविधान लिखने पर अड़ गए। एक पाकिस्तान के लिए और एक भारत के लिए।

पृथक पाकिस्तान की घोषणा के बाद पहली बार 9 दिसम्बर 1946 से भारतीय संविधान पर जमकर कार्य हुए। इस तरह डॉ अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करके दुनिया को चौंकाया। आज वो लोग संविधान बदलने की बात करते हैं जिनके पूर्वजों ने जग हंसाई करवाई थी। मसौदा तैयार करने के पश्चात आगे इसे अमलीजामा पहनाने पर कार्य हुआ जिसमें भी खूब नौटँकियां हुई .. अकेले व्यक्ति बाबा साहेब थे जिन्होंने संविधान पर मन से कार्य किये। पूरी मेहनत और लगन से आज ही के दिन पुरे 2 साल 11 माह 18 दिन बाद बाबा साहेब ने देशवासियों के सामने देश का अपना संविधान रखा जिसके दम पर आज देश विकास और शिक्षा की ओर अग्रसर बढ़ रहा है और कहने वाले कहते रहें मगर बाबा साहेब के योगदान ये भारत कभी नही भुला सकता है। हम उनको संविधान निर्माता के रूप तक सीमित नही कर सकते, आर्किटेक्ट ऑफ़ मॉडर्न इंडिया यूँ ही नही कहा गया कुछ तो जानना पड़ेगा उनके योगदान, समर्पण, कर्तव्य और संघर्षों को।

Wednesday 28 March 2018

ब्राह्मण आतंकवाद और एस सी /एस टी एक्ट बदलाव दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवाद : अधिवक्ता , मदन लाल कलकल


जन उदय : दुनिया के ऐसे बहुत कम ही देश बचे होंगे जो किसी न किसी तरह के हिंसक आन्दोलन या आतंकवाद से न जूझ रहे हो , पूरा एशिया , यूरोप , अमरीका सभी देश इस बिमारी से ग्रस्त है , ये आतंकवाद कैसे पनपा कैसे आया सबसे पहले हम आतंकवाद की कुछ प्रक्रति से मिल लेते है

पूरी दुनिया में हम जिस आतंकवाद को जानते है वह है हिंसक आतंकवाद यानी इसमें या इसके मानने वाले सिर्फ हिंसा में विशवास रखते है यानी अल कायदा , आर एस एस , आइसिस ,लिट्टे जैसे संघठन इसमें आते है , दूसरा होता है सांस्कृतिक आतंकवाद जो दुनिया में सिर्फ आर एस एस चलाता है इसके पूरी दुनिया में बहुत सारे सन्घठन है जो लोगो को गुमराह करके अपनी संस्क्रती की और खींचते है और उन्हें अपने समाज और संस्क्रती की सच्चाई से दूर रखते है , आर एस एस के सन्घठन , अमरीका , यूरोप , कनाडा ,एशिया सभी देश में ये लोग काम करते है इसके कुछ मुख्या एजेंट है ब्रहम कुमारी , पतंजलि , आर्ट ऑफ़ लिविंग , विश्व हिन्दू परिषद , बजरंग दल आदि

तीसरा है राजननीतिक आतंकवाद इसमें अमरीका रूस , चीन , कोरिया इसराइल आदि मुख्य देश है जो पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए इन देशे में तरह तरह के आन्दोलन चलवाते है , इन देशो की अर्थ वाव्य्स्था पर कब्जा जमाते है और इन् देशो को वैसा ही चलाने की कोशिस करते है जैसा ये चाहते है

सभी तरह के आतंकवाद का अध्यन अगर हम करे तो हम ये ही पायंगे की राजनितिक आर्थिक , और हिंसक आतंकवाद उस वक्त खत्म हो जाते है जब इनका मकसद खत्म हो जाता है लेकिन एक आतंकवाद ऐसा आतंकवाद है जो इतनी अस्सानी से खत्म नहीं होता बल्कि इसकी विरासत सदीओ तक चलती रहती है और वो है ब्राह्मण आतंकवाद
बड़े ही साधारण लोग ये कहेंगे की ये ब्राह्मण यानी हिन्दू दरअसल ये बिलकुल गलत है क्योकि भारत में हिन्दू शब्द मुस्लिम काल से पहले था ही नहीं , और भारतीय समाज में ब्राह्मण इसलिए उपर रहा क्योकि ये विदेशी थे और इनको यहाँ यहाँ के लोगो से काफी सम्मान मिला और लोगो ने अपने दिलो में काफी आगाह भी दी लेकिन इनकी गद्दार प्रवर्तियो के कारण ये अलग ही रहे मोर्य काल में अशोक के पोते को उसके सेनापति जिसका नाम पुष्य मित्र शुंग था उसने धोखे से मार दिया इसके बाद इसने सभी बौध लोगो की त्या करना शुरू कर दी जो इन बचे उनको इन ब्राह्मणों ने गुलाम बना लिया

ब्राह्मण आतंकवाद क्यों दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवाद कहा जता है इसका पता इसी से चलता है की इन्होने जिन बौध लोगो को गुलाम बनाया उनको सम्पति , शिक्षा सभी छीन ली और इस गुलामी को पीडी दर पीडी बनाए रखा , और एक सामाजिक , सांस्कृतिक वाव्य्स्था कायम कर ली जिसमे अपने आपको भगवान् का दूत बना दिया , अपने आपको सबसे श्रेष्ठ बना लिया और बौध लोगो को सबसे नीचे स्तर पर लाकर सेवक यानी गुलाम बना लिया और साथ में यह भी कह दिया की यह भगवान् का आदेश है . ये लोग समाज के सबसे निचले स्तर पर ही नहीं पहुचे बल्कि आर्थिक सामाजिक शेक्षिक रूप से भी बहिष्कृत हो गए ये पढ़ नहीं सकते थे , समाज में रह नहीं सकते थे , इन लोगो को शुद्र कहने लगे और इनका मानसिक विकास बिलकुल रुक गया ये कोरे जानवर की तरह जीवन बिताने लगे ,
हजारो साल बाद इतिहास ने करवट बदली और ब्रिटिश शासन के दौरान बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने पूरी दुनिया को ये साबित कर दिया की ब्राह्मण इस देश में विदेशी है . राजनैतिक पहुलुओ को नजर में रखते हुए बाबा साहेब ने आरक्षण के बदले कम्युनल अवार्ड को छोड़ा .

लेकिन ब्राह्मणों ने तथाकथित शुद्रो को पढने से रोकने के लिए , उन पर अत्याचार करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है आज भी ये उनको मानसिक रूप से गुलाम बना कर रखना चाहते है देश में इन शुद्रो के प्रति अत्याचार अभी भी कम नहीं हुआ है
इसलिए हम कह सकते है की गोली से तो आदमी एक बार मर जाता है लेकिन ब्राह्मणों ने जो सांस्कृतिक गुलामी है वह इतनी आसानी से नहीं जानी वाली इसलिए दुनिया का सबसे खतरनाक आतकंवाद ब्राह्मण आतंकवाद है

  हाल ही में फॉरवर्ड प्रेस  में प्रकाशित  श्वेद्श कुमार सिन्हा के एक लेख ने  भारत के बहुजन समाज की स्थिथि  को 

उजागर किया है  जो इस प्रकार है
“””सटी, एससी और ओबीसी दुनिया में सबसे बदहाल

यह तस्वीर सिर्फ गरीबी की नहीं है, बल्कि अशिक्षा, भूमिहीनता, विस्थापन और सामाजिक भेदभाव की भी है। विचारणीय है कि हमारे देश में सबसे ज्यादा गरीब लोगों के बीपीएल के सरकारी आंकड़े अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप नहीं हैं। स्वदेश कुमार सिन्हा की रिपोर्ट :.

तमाम दावों के बावजूद भारत के बहुजन सबसे अधिक बदहाल हैं। यह हालत तब है जब केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक विकास के नये-नये आंकड़े गढ़े जा रहे हैं। बीेते 23 मार्च 2018 को लोकसभा में जगदंबिका पाल के एक प्रश्न के जवाब में जो तथ्य सरकार ने स्वीकार किया है, वह सरकारी योजनाओं और उनके अनुपालन पर सवाल खड़ा करता है। केंद्रीय योजना राज्यमंत्री इंद्रजीत सिंह ने कहा कि 45.3 फीसदी आदिवासी और 31.5 फीसदी दलित गरीबी रेखा के नीचे हैं। वहीं अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन एक्शन अगेंस्ट हंगर की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषण जितनी बड़ी समस्या है, वैसा पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है।


बहुजनों में कुपोषण
समुदाय/वर्ग     कुपोषण
अनुसूचित जनजाति      28%
अनुसूचित जाति  21%
ओबीसी 20%
श्रोत : एक्शन अगेंस्ट हंगर, 2017
साथ ही पिछले वर्ष जारी वर्ल्ड हंगर इंडेक्सके अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब तथा भुखमरी से शिकार लोग भारत में हैं, तथा इनमें से अधिकाँश दलित, पिछड़े तथा जनजातीय समाज के हैं। यह तबका भारत में सामाजिक रूप से बहुजनहै।  इनके विकास के तमाम दावों तथा आरक्षण की व्यवस्था के बाद भी इनकी स्थिति बद से बदत्तर होती जा रही है। और अब तो यह तथ्य सरकार भी स्वीकार कर रही है कि भारत में सामाजिक पिछड़ापन और आर्थिक वंचना एक-दूसरे से काफी हद तक जुड़ी है।
बीपीएल के आंकड़े
समुदाय/वर्ग     बीपीएल के आंकड़े
अनुसूचित जनजाति      45.3%
अनुसूचित जाति  31.5%
ओबीसी सरकार द्वारा आंकड़े जारी नहीं किये गये
श्रोत : भारत सरकार द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत आंकड़ा

लोकसभा में सरकार का जवाब इस निर्मम सच्चाई को ही सामने लाती है। देश की आबादी में दलित 16-17 फीसदी और 7-8 फीसदी आदिवासी हैं। जो सरकारी आँकड़े सामने आए हैं वे पहले के सर्वेक्षणों से मेल खाते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 21-22 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, लेकिन दलितों में यह अनुपात देश के कुल औसत से 10 प्रतिशत अधिक है और जनजातियों में तो यह देश की औसत से 200 फीसदी से भी ज्यादा है। यह स्थिति इस तथ्य की ओर इशारा करती है कि सामाजिक श्रेणीबद्धता काफी हद तक आर्थिक स्थिति का निर्धारण करती है। इस वास्तविकता से नज़र चुराना नामुमकिन है कि दलित, पिछड़े तथा जनजातीय समाज से जुड़े लोगों के साथ सदियों से कैसा अमानवीय व्यवहार होता रहा है। वे छुआ-छूत, अलगाव समेत अनेक प्रकार के सामाजिक विभेदों के शिकार होते रहे हैं। ऐसे में आय वाले सम्मानजनक रोज़गार पाना उनके लिए हमेशा ही कठिन रहा है। यह बात भी सत्य है कि दलित, पिछड़े तथा जनजातीय समाज से कुछ लोग आरक्षण के सहारे उच्च पदों पर पहुँच गए, लेकिन आरक्षण का लाभ कभी भी इन तबकों के व्यापक समाज तक नहीं पहुँच सका, तथा यह थोड़े से लोगों के बीच सिमटा रहा, इसलिए सभी आरक्षित वर्गों में दलितों व आदिवासियों में तो खासकर आरक्षण से लाभान्वित तबकों तथा बाकी लोगों के बीच काफी गैर बराबरी दिखलाई देती है। इन वर्गों के बीच से जो लोग वामपंथी पार्टियों सहित सभी राजनीतिक दलों में सांसद, विधायक, मंत्री आज बने, वह भी इन वर्गों के छोटे से तबके का ही हित साधते रहे।

छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में एक आदिवासी परिवार

आज देश में स्थिति यह है कि अधिकांश दलित असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जहां गुज़ारे लायक तथा निरन्तर आय की गारंटी नहीं होती। कृषि मजदूरों में अधिकांश दलित तथा अति-पिछड़ी जातियों के हैं। कृषि आज लगातार घाटे की स्थिति में है, ऐसे में इन वर्गों की स्थिति बद से बदत्तर होती जा रही है। जंगलों की व्यावसायिक कटाई तथा विभिन्न परियोजनाओं के नाम पर आदिवासियों को जल,जंगल तथा ज़मीन से वंचित किया जा रहा है। एक समय में आत्म-निर्भर जीवन जीने वाले इन लोगों को उनके क्षेत्रों में राष्ट्रीय तथा बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के मजदूर होकर जीवन यापन करना पड़ रहा है, तथा उनका भारी पलायन महानगरों की ओर हो रहा है, वहां भी वे यौन शोषण सहित हर तरह के शोषण तथा लूट के शिकार हो रहे हैं।

इस तरह से हम देखते हैं कि यह तस्वीर सिर्फ गरीबी की नहीं है, बल्कि अशिक्षा, भूमिहीनता, विस्थापन और सामाजिक भेदभाव की भी है। इस तथ्य पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि हमारे देश में सबसे ज्यादा गरीब लोगों के बीपीएल यानी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वालों के सरकारी आंकड़े अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप नहीं हैं। अगर इसे वैश्विक पैमाने पर लागू करें तो बीपीएल का आंकड़ा बहुत अधिक निकलेगा, तथा दलितों व आदिवासियों की हालत और भी बदत्तर दिखलाई पड़ेगी।

 देश में अपराधो को कम करने के लिए सभी लोग कड़े से कड़े कानून बनाने की बात करते हैं , महिलाओं पर अत्याचार ,बलात्कार रोकने के लिए निर्भया कानून बना दिया गया तो एस सी और एस टी उत्पीडन कानून को क्यों न कडा किया जाए जब की गुजरात के उना जैसी घटनाएं देश में रोज होती है कही न कही देश में किसी न किसी एस सी / एस टी पर जुल्म होता है जाति सूचक गाली तो आम बात है और उनकी हत्याए मार पीठ नियमित कर्म काण्ड बन गया है सवर्णों का . हालात यह है की मोदी काल में दलित उत्पीडन के मामलो में ६०० % से जयादा वृद्धि हुई है तो फिर ऐसी क्या बात है की दलित उत्पीडन से जुड़े कानून को एक दम कमजोर कर दिया है ?? वह भी यह कह कर की इसका दुरूपयोग हो रहा है . जब की ऐसा न के बराबर है .अगर ऐसा है तो हम महिला कानून को क्यों नहीं खत्म करते ?? जबकि सवर्ण महिलाए तो इस कानून का जम कर दुरपयोग करती है ??

जब की दलित तो समाजिक , आर्थिक और शेक्षिक रूप से काफी पिछड़े है और इनके पास सिर्फ यह कानून ही एक सहारा था जिसके जरिये वो अपनी लड़ाई लड़ सकते थे और अब इसको भी छीन लिया गया .
आइये इस कानून की उप्योगियता को इस उधाह्र्ण से समझते ही

1.एक गरीब दलित अपनी फरियाद लेकर तहसील जाता है और वँहा जग्गा ठाकुर नाम का अधिकारी मिलता है, उसे जग्गा ठाकुर फरियाद सुनकर उसे उल्टा एक थप्पड़ मारकर यह कहता है की भाग साले चमार/भँगी के इन्हा से, उसके बाद जब पुलिस में शिकायत होगी तब पुलिस जग्गा ठाकुर को गिरफ्तार करने से पहले जग्गा ठाकुर के अधिकारी जो की पक्का आईएएस, आईपीएस की रैंक का होगा से यह परमिशन लेगी की जग्गा को गिरफ्तार करे या नहीं। अब अगर उच्च अधिकारी भी ठाकुर, श्रीवास्तव, शर्मा, अग्रवाल होगा तो समझ जाए की उस गरीब दलित को एक थप्पड़ और मार दिया जाता तो भी कुछ नहीं होगा।

2.दूसरी व्यवस्था यह की गयी है की जग्गा ठाकुर दलित को सार्वजनिक स्थान पर थप्पड़ बजाता है, जातिसूचक शब्द कहे जाते है, खूब पिटाई की जाती है तो भी भी एफआईआर दर्ज होने के बाद पहले डिप्टी एसपी जांच करेगा, उसके बाद ही केस आगे बढ़ पायेगा। अब डिप्टी एसपी की मानसिकता पर यह निर्भर करेगा की केस दर्ज होना चाहिए या नहीं।
3.तीसरी व्यवस्था यह की गयी की जग्गा ठाकुर दलित को थप्पड़ व गालिया देने के बाद न्यायलय में जाकर अग्रिम जमानत ले सकता है, जिसके बाद आराम से बाहर घूमेगा व जांच को प्रभावित कर सकता है।
अत: अब एससी एसटी एक्ट का कोई औचित्य नहीं रहा ऐ। चलो मान लिया की दुरूपयोग हो रहा था, लेकिन इसका यह मतलब नही की एक्ट को एक तरह से निष्प्रभावी ही कर दिया जाए।

इसलिए दलितों को अब समझ लेंना चाहिए की पूजा करने या व्रत रखने के बाद भी हजारो सालो से कोई भगवान बचाने नही आया है आपको अपनी सुरक्षा स्वयं करनी पड़ेगी। इसलिए अब मन्दिर में घण्टा वजाने की जगह, शोषण करने वाले के सर पर घण्टा बजाने का जज्बा लाइये। तभी एट्रोसिटी कम होगी। नही तो "ओ साले चमार के, ओ साले भँगी के" सुनते रहे।

उपरोक्त आधार  पर हम कह सकते है की  यह कानून  एक बहुत शक्तिशाली  माध्यम था  दलित  बहुजन के प्रति अपराध रोकने में लेकिन अपराधिक मानसिकता  और  षड्यंत्र के तहत  इसको   भी खत्म किया जा रहा है



Monday 26 March 2018

आर एस एस की स्थापना ब्राह्मण - हित में या हिन्दू हित में? कीर्ति कुमार , गुजरात


हिन्दुओ पर जितना संकट मुस्लिम साम्राज्य की दो सदियों के दौरान था, वैसा संकट अंग्रेजी शासन के दौरान नहीं था. मुस्लिम साम्राज्य में ब्राह्मण और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के सामने कोइ संकट नहीं था, किन्तु शुद्र(ओबीसी)-अतिशुद्र(एससी-एसटी) पर संकट था, देश की 90 % जनसंख्या संकट में थी. शुद्रो-अतिशुद्रो में से धर्मान्तरण करके कितने ही लोग मुस्लिम बन गए थे, फिर भी महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने कोई राष्ट्रिय संगठन नहीं बनाया.

अंग्रेजी शासन में मुस्लिम शासक़ भी नियंत्रण में आ गए थे. मुस्लिम शासको की ओर से कोई संकट नहीं था, किन्तु शुद्रो-अतिशुद्रो में शिक्षा के आरंभ के साथ जागृति पैदा होने से ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पहचान शत्रु रूप में हो जाने से ब्राह्मणवाद के सामने संकट आरंभ हुआ, संकट से निपटने के लिए महाराष्ट्र के कुछ कट्टर जातिवादी ब्राह्मणों को संगठित होने की आवश्यकता हुई.

(1) महाराष्ट्र में यदि महात्मा ज्योतिबा फूले जन्मे न होते तो महाराष्ट्र में हिंदु महासभा या आर.एस.एस. का जन्म न हुआ होता.
छत्रपति शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मंडल में सात ब्राह्मण मंत्री थे. छत्रपति शिवाजी के शासन में ब्राह्मणों को इतना दान दिया जाता था, जितना दान देश के एक भी हिंदु राजा के राज में दिया नहीं जाता था. शिवाजी के बाद उनका साम्राज्य ब्राहमण पेश्वा के हाथ में चला गया. पेश्वा शासन और कोल्हापुर, नागपुर, इन्दोर, ग्वालियर जैसे मराठा राजाओ के शासन में ब्राह्मणों के धर्म के व्यवसाय का पुरजोर में विकास हुआ. विपुल दान दक्षिणा से महाराष्ट्र के ब्राह्मण मालामाल हो गए.

अंग्रेजी शासन के आने से ब्राह्मण पेशवा शासन समाप्त हो गया. महाराष्ट्र और देश में क्षत्रिय-राजपूत राजाओ को छोडकर अन्य गेर-ब्राह्मण लोगो को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार पौराणिक ब्राह्मण धर्म के अनुसार नहीं था. पौराणिक ब्राह्मण शास्त्रों और मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के अनुसार शिक्षा मात्र जन्मजात ब्राह्मणों के लिए आरक्षित थी. शिक्षा का अर्थ था ब्राह्मण धर्मग्रंथो की पढाई, जो कि संस्कृत में लिखे थे. संस्कृत केवल जन्मजात ब्राह्मणों के लिए आरक्षित भाषा थी. ब्राह्मण का वचन अर्थात ईश्वर का वचन, ब्राह्मण यानी पृथ्वी का स्वामी, पृथ्वी का देवता ऐसी जूठी धारणा जनमानस में द्रढता पूर्वक शास्त्र और दंड की व्यवस्था के साथ स्थापित कर दी गई थी.

ब्रिटिश शासन में सरकारी पाठशालाओ का आरंभ होने से ब्राह्मण के बच्चो के साथ गेर-ब्राह्मणों के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करने लगे. अछूत मानी गई जातियो के बच्चो को आरंभ में प्रवेश मिला नहीं था किन्तु, शुद्र वर्ण की कुणबी, माली, अहीर, कुम्भार, तेली, तम्बोली, सोनी, गडरिया, लोधी, कुशवाहा जैसी जातियों के बच्चे शालाओ में शिक्षा पाने लगे थे. कट्टरपंथी ब्राह्मणों के लिए ये असह्य था कि गेर-ब्राह्मण बच्चे, ब्राह्मण जाति के बच्चों के साथ बरोबरी कर के शिक्षा प्राप्त करने मे स्पर्धा करे.

1848 में शुद्र वर्ण कि माली जाति के ज्योतिबा फूले ने उदारमत वाले ब्राह्मण साथियों के सहयोग से शुद्रों-अतिशुद्रो के लिए पाठशाला आरम्भ कियी. स्त्रियों की शिक्षा के लिए कन्याशाला शुरू कियी. शिक्षा पाने का अधिकार केवल ब्राह्मण पुरुषों को है, ऐसी झूठी धारणा को धर्म मानने वाले पुराणपंथी कट्टर ब्राह्मणों ने फूले का उग्र विरोध किया. शुद्रों और स्त्रियों को शिक्षा देने से धर्म रसातल में चला जाएगा, ऐसा कोहराम उन्होंने मचाया था.
उदार ब्राहमणों में से कुछ निडर ब्राहमणों ने कट्टरपंथियों की पर्वाह नहीं करते हुए जोतिबा फूले का समर्थन किया. कुछ छिपे तोर पर सहायता भी करते रहे. कट्टरपंथियों ने जोतिबा फूले की हत्या करने के लिए हत्यारे भी भेजे थे.
धर्म के नाम पर पुरातनपंथी ब्राह्मणों द्वारा प्रेरित ऊँच-नीच की वर्णव्यवस्था और कर्मकांडो की ठग विद्या से लोगो के धर्म के नाम पर होते रहे शोषण के विरुद्ध जोतिबा फूले ने आवाज उठाई. उन्होंने गुलामगीरी’, ‘किसानो का कोड़ा’, ‘ब्राह्मणों की चालाकी’, ‘तृतीय रत्नजैसी पुस्तके भी लिखी.

24 सितम्बर 1873 में उन्होंने सत्यशोधक समाजनाम का संगठन स्थापित करके सामाजिक समानता के सत्य धर्म आन्दोलन का आरम्भ किया. सत्यशोधक समाजके सिद्धांत निम्नलिखित थे.
1. ईश्वर एक ही है. वह किसी गुफा, पर्वत, नदी, नाले, या पंडित, पुरोहित के मंदिर में बंध नहीं है, वह सर्वव्यापी है.
2. ईश्वर हिंदु, मुस्लमान, ब्राह्मण, अछूत आदि भेदभाव नहीं करता, उसे सभी मानव सामान रूप से प्रिय है.
3. सभी लोगो को ईश्वर की आराधना करने का अधिकार है और उसके लिए किसी दलाल की जरूरत नहीं. ईश्वर को आत्मशक्ति से ही प्रसन्न कर सकते है.

4. मानव जाति से नहीं, गुणों से श्रेष्ठ होता है. ऊँची जाति में जन्म लेने से मानव श्रेष्ठ और नीची जाति में जन्म लेने से मानव नीचा होता है, ऐसी झूठी धारणा पंडितो-पुरोहितो ने फैलाई है.
5. कोई भी ग्रंथ ईश्वर रचित नहीं है.
6. ईश्वर साकार रूप से जन्म नहीं लेता.
7. पूर्वजन्म की धारणा, कर्मकांड, जप-तप अज्ञान के मूल है.
सत्यशोधक समाज ने निम्नलिखित कार्यों को अपना लक्ष्य बनाया.
-ब्राह्मण शास्त्रों की मानसिक तथा धार्मिक गुलामी से लोगो को मुक्त करना.
-पुरोहितो द्वारा किए जाने वाले शोषण को रोकना.
-अछूतो का उद्धार करके छुआछूत को दूर करना.
-महिलाओ के मानव अधिकार की रक्षा करना.
-गरीब बच्चो तथा अंधे-विकलांगो के साथ सहानुभूति रखना.
-सत्य आचरण तथा निष्ठा को अपनाना.

50 से 60 लोगो कि उपस्थिति में सत्यशोधक समाजकी स्थापना हुई. उसका प्रचार-प्रसार मुंबई, नासिक, पुणे के आसपास की परिधि में बढता गया. कट्टरपंथी ब्राह्मणों के लिए यह बहुत बड़ी चुनोती थी. धर्म उनका धंधा था, उनके धंधे पर सत्यशोधक समाज का प्रहार होने से महाराष्ट्र के ब्राह्मणों को यह निरंतर अहेसास होता रहा कि, उनका धर्म का धंधा बंध हो जाएगा, जन्मजात श्रेष्ठता की स्थापित मान्यता समाप्त हो जायेगी, भूदेव रूप का जन्मजात दर्जा खत्म हो जाएगा.
(2) ब्रिटिश शासन में ब्राह्मणों के बढे हुए प्रभुत्व के सम्बन्ध में जाने माने समाजशास्त्री रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक भारतीय राजनीति में जातिवादमें लिखा है कि, “क्योकि ब्राह्मण शिक्षा परिसरों, व्यवसायों में प्रविष्ठ हो चुके थे इसीलिए सभी स्थानों पर उन्होंने अपने गिरोह बना लिए थे. इनसे गेर-ब्राह्मणों को बाहर रखा गया. 1892 से 1904 के बीच भारतीय सिविल सेवाओ में सफलता पानेवाले 16 प्रतियाशियो में 15 ब्राह्मण थे. 1914 में 128 जिलाधिकारियों में से 93 ब्राह्मण थे.

ऐसे ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के सामने सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए, 26, जुलाई 1902 के दिन छत्रपति शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य की सेवाओ में 50% स्थान शुद्र(ओबीसी) तथा अतिशुद्रों(एसटी-एससी) के लिए आरक्षित करने के आदेश जारी किए. इससे सत्तामें पिछड़े वर्गों की सामाजिक भागीदारी आरम्भ हुई.
शासन के लिए अपनी जाति को जन्मजात रूप से योग्य और श्रेष्ठ मानने वाले और शुद्रों-अतिशुद्रों को जन्मजात रूप से अयोग्य और नीच माननेवाले ब्राह्मणों ने सामाजिक ढंग से शाहूजी महाराज के 50% आरक्षण का विरोध किया. बाल गंगाधर तिलक़ ने अपने अखबार केसरीमें आरक्षण का विरोध किया.

महात्मा जोतिबा फूले स्थापित सत्यशोधक समाज की कोल्हापुर शाखा 1911 में प्रारंभ हुई. छत्रपति शाहूजी महाराज ने कार्यालय के लिए एक भवन दिया और हरीभाऊ चव्हाण तथा धनगर(रेबारी) जाति के ढोण गुरुजी को नोकरी से मुक्त करके सत्यशोधक समाज के काम में लगाया.

(3) केरल-मद्रास में 1884 से 1928 तक की अवधि में नारायण गुरु ने शुद्र (ओबीसी) अति शुद्र(एस.सी./एस.टी.) में सामाजिक समानता का आन्दोलन चलाया. उनके आंदोलन में बिना मूर्ति के मंदिर बनाने और मंदिरों में शिक्षा देने के कार्यक्रम को प्रधानता दी गई. चार वर्ण की ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सामने नारायण गुरु ने समानता का सूत्र दिया एक ही जाति मानव जाति.ब्राह्मणवादी व्यवस्था के 33 करोड देवता के सामने नारायण गुरु ने सूत्र दिया, “एक ही इश्वर.ब्राह्मणवादी अनेक संप्रदायों के सामने नारायण गुरु ने एक सूत्र दिया, ‘एक ही धर्म मानव धर्मब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध नारायण गुरु के आन्दोलन से ब्राह्मणों के धर्म के धंधे पर खतरा खड़ा हुआ.

(4) 1921 में संयुक्त मद्रास प्रान्त की जस्टिस पार्टी की सरकार ने गेर-ब्राह्मण शुद्रो, अतिशुद्रो को सांप्रदायिक कोटे से सेवाओ में आरक्षण देने के कदम उठाये. ईस वर्ष में मैसूर राज्य के राजा ने शुद्रातिशुद्र जातियो को पिछड़ी जातियों के रूप में मान्यता दी और आरक्षण की घोषणा की. ब्राह्मणों के कार्यपालिका पर जमे हुए प्रभुत्व के सामने चुनोतिया बढ़ी.
1925 में ई. वी. रामासामी पेरियार ने मद्रास प्रान्त में प्रभूत्व जमाए हुए ब्राह्मणवाद के सामने आत्मसन्मान आन्दोलन समितिकी स्थापना करके शुद्रो-अतिशुद्रो का मुलनिवासी द्रविड आन्दोलन आरंभ किया.

(5) इंग्लेंड में मताधिकार केवल करदाताओ तथा शिक्षितों को ही था. इसके खिलाफ सभी को मताधिकार के लिए 1917 में आन्दोलन शुरू होते ही इंग्लेंड सरकार ने एक क्रन्तिकारी निर्णय लेकर 1918 में 21 वर्ष की आयु के मजदूरो और निरक्षरो समेत सभी को मताधिकार दे दिया.

भारत में भी ब्रिटिश शासन के अधीन प्रान्तों को स्वराज्य देने की प्रक्रिया चल रही थी. इंग्लेंड में आम जनता को जो अधिकार दिए जाते थे, वैसे अधिकार भारत में भी लागु होने वाले थे. भारत में आने वाले वर्षों में मताधिकार मिलेगा तो शुद्रो-अतिशुद्रो को भी मिलेगा. 3 % ब्राह्मण जनसंख्या में से कट्टरपंथी ब्राह्मण राजकीय नेतृत्व नहीं कर शकेंगे ऐसी चुनौती भी उनके सामने आ रही थी.

1919 में भिन्न-भिन्न पक्षो और समुदायों ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से साऊथ बरोकमिटी के सामने निवेदन किया था. डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर तथा कर्मवीर शिंदे ने अछूतो की दुर्दशा के संबंध में ज्ञापन देकर अछूतो के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र तथा आरक्षित सीटों की मांग की. इसी वर्ष शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य में अश्पृश्यता के अंत करने का आदेश जारी कर के उन्हें सार्वजनीक़ स्थलों के उपयोग के अधिकार प्रदान किए.
(6)1920 में बालगंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र के पुरातनपंथी ब्राह्मणों के लिए महात्मा गाँधी तथा उदार ब्राह्मणों के साथ काम करना कठिन था. सत्य शोधक समाज के नेता जाधव और जवलकर की देश के दुश्मननाम की पुस्तक में ब्राह्मणवाद के समर्थक बाल गंगाधर तिलक और विनायक सावरकर को देश के दुश्मन बताए थे. ईस पुस्तक को जप्त किया गया था. 1920 में पुस्तक की जप्ती के खिलाफ न्यायलय से मुक़दमा जित कर डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने ईस पुस्तक को सार्वजनिक करवाया.

(71923 में ब्रिटिश सरकार ने एक आदेश निकला,-“कोई भी शिक्षा संस्था जो सरकार से अनुदान लेती है, उसमें अछूतो(sc) को प्रवेश देने से इन्कार करनेवाली संस्था का अनुदान बंध कर दिया जाएगा.
17 सितम्बर 1923 में मुंबई सरकार के वित् मंत्रालय ने एक आदेश निकाला, जिसमे सरकारी कार्यालयों और संस्थाओ में नीचे के वर्ग में जहा तक वंचित जातियो के जरिए खाली स्थान भरने में नहीं आते, तब तक उन स्थानों पर ब्राह्मणों और उनकी समकक्ष जातियो की भर्ती नहीं की जाए, ऐसा प्रतिबंध आया.

(8) ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य ये तीन वर्ण यज्ञोपवित पहन सकते थे. शुद्रो-अतिशुद्रो और स्त्रियों को न तो यज्ञोपवित धारण करने का अधिकार था न शिक्षा ग्रहण करने का.
अंग्रेजी शासन में शुद्रो-अतिशुद्रो में शिक्षा पाना तो आरंभ हुआ, किन्तु उच्च जतियों की बराबरी के लिए यज्ञोपवित धारण करने का आन्दोलन भी उत्तरप्रदेश और बिहार के अहीरों- यादवो ने आरंभ किया. बिहार के मुंगेर जिले के लखीसराय थाना के क्षेत्र के लाखुचक गांव में सामूहिक रूप से यज्ञोपवित धारण करने का संमेलन अहीरों ने आयोजित किया. ब्राह्मणवादी ऐसा किस प्रकार सहन कर सकते थे
?
यादवो के संमेलन पर रामपुर के भूमिहार-जमीदार नारायण सिंह ने हाथी पर सवार होकर सेंकडो की हथियार बंध सेना के साथ आक्रमण किया. यादवो को ऐसा होने की आशंका थी और उन्हों ने उस बात की जानकारी लखीसराय थाने में दे दी थी. हजारों की संख्या में एकत्रित हुए यादवो ने अपनी लाठियों से प्रतिकार करके भूमिहारो की सेना को डेढ़ मिल पीछे खदेड़ दिया. एस.डी.एम., एस.पी., पुलिस तथा सेना के जवान वहा आ पहुचे. उन्हों ने भी भूमिहारो को गोली चलाने की चेतावनी देकर रोका. ईस घटना में जिला कलेक्टर एवं जिला मजिस्ट्रेट ने भूमिहार नेता नारायण सिंह पर 16 हजार रूपये का दंड किया.

(9) उतरप्रदेश में रायसाहब रामचरण की अध्यक्षता में शुद्र-अतिशुद्रो का संगठन आदि हिंदु समाज’ 1919 में लखनऊ में स्थापित हुआ. 1925 में साइमन कमिसन देश के पिछडे वर्गों की समस्याओ को जानने के लिए लखनऊ आया तब रायसाहब रामचरण तथा शिवदयाल सिंह चौरसिया ने फ्रेंचाइज़ कमिटी के नियुक्त सदस्य के रूप में शुद्रो-अतिशुद्रो की समस्याओ के संबंध में कमीशन के समक्ष पक्ष प्रस्तुत किया था.

आदि हिंदु समाजशुद्र वर्ण की जातियो को जागृत करता था और उसके जैसे ही एक दुसरे संगठन ने उत्तरभारत में अछूतो को जागृत करना आरम्भ किया. स्वामी अछुतानंद ने 1923 में ऑल इंडिया आदि हिंदु महासभाकी स्थापना की थी. देश के भिन्न-भिन्न प्रदेशो के शहरो अलाहाबाद, लखनऊ, कानपूर, अल्मोड़ा, जयपुर तथा अमरावती में संमेलन करके उन्होंने देश के अछूतो में जागृति का प्रवाह प्रवाहित किया.

ऊपर बताये अनुसार सारे देश में गेर- ब्राह्मण शुद्र-अतिशुद्र जातियों में 1873 से 1925 की समयावधि में सामाजिक समानता हेतु आन्दोलन फ़ैल रहा था. ब्राह्मण जाति के सामाजिक प्रभुत्व के विरुद्ध संकट बढ़ रहे थे, तब राष्ट्रिय स्तर पर ब्राह्मण जाति के स्थापित किए हुए हितों की रक्षा और संवर्धन के लिए एक भी संगठन नहीं था.
ब्राह्मणवादी स्थापित हितों के सामने सबसे बड़ी आवाज 1873 से 1925 के बीच महाराष्ट्र के महात्मा जोतिबा फूले, छत्रपति शाहूजी महाराज और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा उठाई जाती रही. 1920 से 1924 तक की तत्कालीन महाराष्ट्र की सामाजीक़ स्थिति का वर्णन संघ के स्वयंसेवक ना.ह.पालकर लिखित डॉ. हेडगेवारजीवन कथा के पृष्ठ-213 पर मिलती है. इसमें लिखा है,

ईस समय महाराष्ट्र में सभी ब्राह्मणों, गेर-ब्राह्मणों के बीच बहुत कटुता व्याप्त हो गई थी. इससे मुसलमानों को आशा थी की, ईस कटुता का लाभ उठाकर हिंदु संगठन की तयारी करनेवाले तथा मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करनेवाले उजले लोगो (ब्राह्मणों) को अच्छा बोधपाठ पढाया जा सकेगा. कारण यह था की, कमसे कम उस समय तो गेर-ब्राह्मणवादी और मुस्लमान दोनों ही उजले (ब्राह्मण) वर्ग के विरोध में खडे थे.
ऊपर वर्णित स्थिति और संयोगो ने संघ की स्थापना के लिए महाराष्ट्र के कट्टर ब्राह्मणों को क्या प्रेरित नहीं किया होगा?
वैदिक ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति की चार वर्ण की व्यवस्था की मान्यता से हट कर सत्य शोधक समाजद्वारा आरंभ की गई सामाजिक समानता की जुम्बेश को छत्रपति शाहूजी महाराज तथा डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा सतत नेतृत्व मिलता रहा था. ये कट्टरपंथी ब्राहमणों के लिए सहन न हो सके ऐसी स्थिति थी.
देश में वैचारिक हिसाब से ब्राह्मण दो भाग में बंट चुके थे. पुराणपंथी ब्राह्मण जो वैदिक संस्कृति में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरोधी थे. दूसरे उदार ब्राह्मण थे जो सामाजिक समानता तथा सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार और समर्थन करते थे.
महाराष्ट्र में कट्टर पुराणपंथी ब्राह्मणों का नेतृत्व बालगंगाधर तिलक करते थे. जब की उदार ब्राह्मणों का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले करते थे. दोनों ही गुट कोंग्रेस से जुड़े हुए थे. राष्ट्रिय स्तर पर गोपाल कृष्ण गोखले और मोतीलाल नेहरु जैसे उदार ब्राह्मण नेता महात्मा गाँधी के साथ थे. जब की डॉ. हेडगेवार जैसे कितने ही पुराणपंथी ब्राह्मण कार्यकर्ता बाल गंगाधर तिलक के साथ थे. तिलक का सपना अंग्रेजी शासन को हटाकर देश में पेश्वाशाही की पून:स्थापना का था.
डॉ. हेडगेवार और सावरकर दोनों बाल गंगाधर तिलक के अनुयायी थे. गुजराती बनिया गांधीजी की बढती जाती लोकप्रियता से परेशान तिलक ने अपने समर्थक ब्राह्मणों से कहा था की, भारत के राष्ट्रिय आन्दोलन का नेतृत्व गेर-ब्राह्मण के हाथो मे जाने से रोकना चाहिए. देश में, व्यापक स्तर पर प्रदेशो में शुद्रो-अतिशुद्रो के उत्थान हेतु संघर्ष शुरू हो गए थे. ऐसे संयोगो में ब्राह्मणवाद के सामने सीधी चुनौती आगे बढ़ रही थी.

ऐसी स्थिति में डॉ. हेडगेवार तथा तिलक के अनुयायी पुरातनपंथी ब्राह्मणों के सामने दो ही विकल्प थे. एक विकल्प देश की आझादी की लड़ाई लड़नी और कोंग्रेस में रहकर उदार ब्राह्मण नेताओ के नियंत्रण में काम करना था. दूसरा विकल्प अपनी ब्राह्मण जाति के स्थापित हितों की रक्षा करने के हेतु महाराष्ट्र के पुरातनपंथी ब्राह्मणों को संगठित करके सामाजिक परिवर्तन को रोकना था. डॉ. हेडगेवार ने देश की स्वतंत्रता से अधिक अपनी ब्राह्मण जाति के हित को महत्व दिया.

संघ के भाष्यकार और दूसरे ब्राह्मण सर संघचालक गोलवलकर ने डॉ. हेडगेवार की ऐसी भूमिका को स्पष्ट किया और ब्राह्मण स्वयंसेवकों को कहा की,-“हमें अपनी Race (जाति वंश) का विचार करना चाहिए. Cause of the race is cause of the nation. तुम जाति के कार्य को बडा समजो, अपने को बडा न समजो.
-‘तीन ब्राह्मण सरसंघ चालक राष्ट्रवादी या जातिवादी?’ में से.