Apni Dukan

Friday 31 March 2017

बहुजन युवा का संकल्प ब्राह्मण मुक्त भारत :हिन्दू राष्ट्र के नाम पर मुर्ख बना ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करना चाहता है संघ :


पुरे देश को हिन्दू –हिन्दू चिल्ला कर संघ आज यहाँ तक पहुच गया है की उसने कई राज्यों में और केंद्र में अपना सरकार बना ली है है लेकिन कमाल की बात यह है की ये हिन्दू हिन्दू चिल्लाने  वाले लोग प्रचंड रूप से बहुजन हिन्दू के खिलाफ न सिर्फ षड्यंत्र रचते है बल्कि इनके सारे हक खा  जाते है बल्कि हिन्दू के नाम पर केवल ब्राह्मणों  का ही वर्चस्व  कायम करने  में ली है , कमाल की बात यह है कि बहुजनो  को मिलने वाले आरक्षण  के विरोध में षड्यंत्र  रचते रहते है और  खुले नाम  आरक्षण का विरोध करते है , देखने वाली बात यह है अगर संघ अपने आपको  हिन्दू संघटन कहता है  तो वो हिन्दुओ  को मिलने वाले आरक्षण के खिलाफ कैसे बोलता  है ??  साफ़ जाहिर है  की संघ  हिन्दुओ का नहीं ब्राह्मणों  का  संघठन  है और ये लोग इस देश के नहीं है

इसको हम इतिहासिक  परिपेक्ष्य  में भी देख सकते है हिन्दुओ पर जितना संकट मुस्लिम साम्राज्य की दो सदियों के दौरान था, वैसा संकट अंग्रेजी शासन के दौरान नहीं था. मुस्लिम साम्राज्य में ब्राह्मण और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के सामने कोइ संकट नहीं था, किन्तु शुद्र(ओबीसी)-अतिशुद्र(एससी-एसटी) पर संकट था, देश की 90 % जनसंख्या संकट में थी. शुद्रो-अतिशुद्रो में से धर्मान्तरण करके कितने ही लोग मुस्लिम बन गए थे, फिर भी महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने कोई राष्ट्रिय संगठन नहीं बनाया.

अंग्रेजी शासन में मुस्लिम शासक़ भी नियंत्रण में आ गए थे. मुस्लिम शासको की ओर से कोई संकट नहीं था, किन्तु शुद्रो-अतिशुद्रो में शिक्षा के आरंभ के साथ जागृति पैदा होने से ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पहचान शत्रु रूप में हो जाने से ब्राह्मणवाद के सामने संकट आरंभ हुआ, संकट से निपटने के लिए महाराष्ट्र के कुछ कट्टर जातिवादी ब्राह्मणों को संगठित होने की आवश्यकता हुई.

(1) महाराष्ट्र में यदि महात्मा ज्योतिबा फूले जन्मे न होते तो महाराष्ट्र में हिंदु महासभा या आर.एस.एस. का जन्म न हुआ होता.
छत्रपति शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मंडल में सात ब्राह्मण मंत्री थे. छत्रपति शिवाजी के शासन में ब्राह्मणों को इतना दान दिया जाता था, जितना दान देश के एक भी हिंदु राजा के राज में दिया नहीं जाता था. शिवाजी के बाद उनका साम्राज्य ब्राहमण पेश्वा के हाथ में चला गया. पेश्वा शासन और कोल्हापुर, नागपुर, इन्दोर, ग्वालियर जैसे मराठा राजाओ के शासन में ब्राह्मणों के धर्म के व्यवसाय का पुरजोर में विकास हुआ. विपुल दान दक्षिणा से महाराष्ट्र के ब्राह्मण मालामाल हो गए.


अंग्रेजी शासन के आने से ब्राह्मण पेशवा शासन समाप्त हो गया. महाराष्ट्र और देश में क्षत्रिय-राजपूत राजाओ को छोडकर अन्य गेर-ब्राह्मण लोगो को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार पौराणिक ब्राह्मण धर्म के अनुसार नहीं था. पौराणिक ब्राह्मण शास्त्रों और मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के अनुसार शिक्षा मात्र जन्मजात ब्राह्मणों के लिए आरक्षित थी. शिक्षा का अर्थ था ब्राह्मण धर्मग्रंथो की पढाई, जो कि संस्कृत में लिखे थे. संस्कृत केवल जन्मजात ब्राह्मणों के लिए आरक्षित भाषा थी. ब्राह्मण का वचन अर्थात ईश्वर का वचन, ब्राह्मण यानी पृथ्वी का स्वामी, पृथ्वी का देवता ऐसी जूठी धारणा जनमानस में द्रढता पूर्वक शास्त्र और दंड की व्यवस्था के साथ स्थापित कर दी गई थी.
ब्रिटिश शासन में सरकारी पाठशालाओ का आरंभ होने से ब्राह्मण के बच्चो के साथ गेर-ब्राह्मणों के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करने लगे. अछूत मानी गई जातियो के बच्चो को आरंभ में प्रवेश मिला नहीं था किन्तु, शुद्र वर्ण की कुणबी, माली, अहीर, कुम्भार, तेली, तम्बोली, सोनी, गडरिया, लोधी, कुशवाहा जैसी जातियों के बच्चे शालाओ में शिक्षा पाने लगे थे. कट्टरपंथी ब्राह्मणों के लिए ये असह्य था कि गेर-ब्राह्मण बच्चे, ब्राह्मण जाति के बच्चों के साथ बरोबरी कर के शिक्षा प्राप्त करने मे स्पर्धा करे.

1848 में शुद्र वर्ण कि माली जाति के ज्योतिबा फूले ने उदारमत वाले ब्राह्मण साथियों के सहयोग से शुद्रों-अतिशुद्रो के लिए पाठशाला आरम्भ कियी. स्त्रियों की शिक्षा के लिए कन्याशाला शुरू कियी. शिक्षा पाने का अधिकार केवल ब्राह्मण पुरुषों को है, ऐसी झूठी धारणा को धर्म मानने वाले पुराणपंथी कट्टर ब्राह्मणों ने फूले का उग्र विरोध किया. शुद्रों और स्त्रियों को शिक्षा देने से धर्म रसातल में चला जाएगा, ऐसा कोहराम उन्होंने मचाया था.
उदार ब्राहमणों में से कुछ निडर ब्राहमणों ने कट्टरपंथियों की पर्वाह नहीं करते हुए जोतिबा फूले का समर्थन किया. कुछ छिपे तोर पर सहायता भी करते रहे. कट्टरपंथियों ने जोतिबा फूले की हत्या करने के लिए हत्यारे भी भेजे थे.
धर्म के नाम पर पुरातनपंथी ब्राह्मणों द्वारा प्रेरित ऊँच-नीच की वर्णव्यवस्था और कर्मकांडो की ठग विद्या से लोगो के धर्म के नाम पर होते रहे शोषण के विरुद्ध जोतिबा फूले ने आवाज उठाई. उन्होंने गुलामगीरी’, ‘किसानो का कोड़ा’, ‘ब्राह्मणों की चालाकी’, ‘तृतीय रत्नजैसी पुस्तके भी लिखी.

24 सितम्बर 1873 में उन्होंने सत्यशोधक समाजनाम का संगठन स्थापित करके सामाजिक समानता के सत्य धर्म आन्दोलन का आरम्भ किया. सत्यशोधक समाजके सिद्धांत निम्नलिखित थे.
1. ईश्वर एक ही है. वह किसी गुफा, पर्वत, नदी, नाले, या पंडित, पुरोहित के मंदिर में बंध नहीं है, वह सर्वव्यापी है.
2. ईश्वर हिंदु, मुस्लमान, ब्राह्मण, अछूत आदि भेदभाव नहीं करता, उसे सभी मानव सामान रूप से प्रिय है.
3. सभी लोगो को ईश्वर की आराधना करने का अधिकार है और उसके लिए किसी दलाल की जरूरत नहीं. ईश्वर को आत्मशक्ति से ही प्रसन्न कर सकते है.
4. मानव जाति से नहीं, गुणों से श्रेष्ठ होता है. ऊँची जाति में जन्म लेने से मानव श्रेष्ठ और नीची जाति में जन्म लेने से मानव नीचा होता है, ऐसी झूठी धारणा पंडितो-पुरोहितो ने फैलाई है.
5. कोई भी ग्रंथ ईश्वर रचित नहीं है.
6. ईश्वर साकार रूप से जन्म नहीं लेता.
7. पूर्वजन्म की धारणा, कर्मकांड, जप-तप अज्ञान के मूल है.
सत्यशोधक समाज ने निम्नलिखित कार्यों को अपना लक्ष्य बनाया.
-ब्राह्मण शास्त्रों की मानसिक तथा धार्मिक गुलामी से लोगो को मुक्त करना.
-पुरोहितो द्वारा किए जाने वाले शोषण को रोकना.
-अछूतो का उद्धार करके छुआछूत को दूर करना.
-महिलाओ के मानव अधिकार की रक्षा करना.
-गरीब बच्चो तथा अंधे-विकलांगो के साथ सहानुभूति रखना.
-सत्य आचरण तथा निष्ठा को अपनाना.

50 से 60 लोगो कि उपस्थिति में सत्यशोधक समाजकी स्थापना हुई. उसका प्रचार-प्रसार मुंबई, नासिक, पुणे के आसपास की परिधि में बढता गया. कट्टरपंथी ब्राह्मणों के लिए यह बहुत बड़ी चुनोती थी. धर्म उनका धंधा था, उनके धंधे पर सत्यशोधक समाज का प्रहार होने से महाराष्ट्र के ब्राह्मणों को यह निरंतर अहेसास होता रहा कि, उनका धर्म का धंधा बंध हो जाएगा, जन्मजात श्रेष्ठता की स्थापित मान्यता समाप्त हो जायेगी, भूदेव रूप का जन्मजात दर्जा खत्म हो जाएगा.

(2) ब्रिटिश शासन में ब्राह्मणों के बढे हुए प्रभुत्व के सम्बन्ध में जाने माने समाजशास्त्री रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक भारतीय राजनीति में जातिवादमें लिखा है कि, “क्योकि ब्राह्मण शिक्षा परिसरों, व्यवसायों में प्रविष्ठ हो चुके थे इसीलिए सभी स्थानों पर उन्होंने अपने गिरोह बना लिए थे. इनसे गेर-ब्राह्मणों को बाहर रखा गया. 1892 से 1904 के बीच भारतीय सिविल सेवाओ में सफलता पानेवाले 16 प्रतियाशियो में 15 ब्राह्मण थे. 1914 में 128 जिलाधिकारियों में से 93 ब्राह्मण थे.

ऐसे ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के सामने सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए, 26, जुलाई 1902 के दिन छत्रपति शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य की सेवाओ में 50% स्थान शुद्र(ओबीसी) तथा अतिशुद्रों(एसटी-एससी) के लिए आरक्षित करने के आदेश जारी किए. इससे सत्तामें पिछड़े वर्गों की सामाजिक भागीदारी आरम्भ हुई.
शासन के लिए अपनी जाति को जन्मजात रूप से योग्य और श्रेष्ठ मानने वाले और शुद्रों-अतिशुद्रों को जन्मजात रूप से अयोग्य और नीच माननेवाले ब्राह्मणों ने सामाजिक ढंग से शाहूजी महाराज के 50% आरक्षण का विरोध किया. बाल गंगाधर तिलक़ ने अपने अखबार केसरीमें आरक्षण का विरोध किया.

महात्मा जोतिबा फूले स्थापित सत्यशोधक समाज की कोल्हापुर शाखा 1911 में प्रारंभ हुई. छत्रपति शाहूजी महाराज ने कार्यालय के लिए एक भवन दिया और हरीभाऊ चव्हाण तथा धनगर(रेबारी) जाति के ढोण गुरुजी को नोकरी से मुक्त करके सत्यशोधक समाज के काम में लगाया.

(3) केरल-मद्रास में 1884 से 1928 तक की अवधि में नारायण गुरु ने शुद्र (ओबीसी) अति शुद्र(एस.सी./एस.टी.) में सामाजिक समानता का आन्दोलन चलाया. उनके आंदोलन में बिना मूर्ति के मंदिर बनाने और मंदिरों में शिक्षा देने के कार्यक्रम को प्रधानता दी गई. चार वर्ण की ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सामने नारायण गुरु ने समानता का सूत्र दिया एक ही जाति मानव जाति.ब्राह्मणवादी व्यवस्था के 33 करोड देवता के सामने नारायण गुरु ने सूत्र दिया, “एक ही इश्वर.ब्राह्मणवादी अनेक संप्रदायों के सामने नारायण गुरु ने एक सूत्र दिया, ‘एक ही धर्म मानव धर्मब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध नारायण गुरु के आन्दोलन से ब्राह्मणों के धर्म के धंधे पर खतरा खड़ा हुआ.

(4) 1921 में संयुक्त मद्रास प्रान्त की जस्टिस पार्टी की सरकार ने गेर-ब्राह्मण शुद्रो, अतिशुद्रो को सांप्रदायिक कोटे से सेवाओ में आरक्षण देने के कदम उठाये. ईस वर्ष में मैसूर राज्य के राजा ने शुद्रातिशुद्र जातियो को पिछड़ी जातियों के रूप में मान्यता दी और आरक्षण की घोषणा की. ब्राह्मणों के कार्यपालिका पर जमे हुए प्रभुत्व के सामने चुनोतिया बढ़ी.
1925 में ई. वी. रामासामी पेरियार ने मद्रास प्रान्त में प्रभूत्व जमाए हुए ब्राह्मणवाद के सामने आत्मसन्मान आन्दोलन समितिकी स्थापना करके शुद्रो-अतिशुद्रो का मुलनिवासी द्रविड आन्दोलन आरंभ किया.

(5) इंग्लेंड में मताधिकार केवल करदाताओ तथा शिक्षितों को ही था. इसके खिलाफ सभी को मताधिकार के लिए 1917 में आन्दोलन शुरू होते ही इंग्लेंड सरकार ने एक क्रन्तिकारी निर्णय लेकर 1918 में 21 वर्ष की आयु के मजदूरो और निरक्षरो समेत सभी को मताधिकार दे दिया.

भारत में भी ब्रिटिश शासन के अधीन प्रान्तों को स्वराज्य देने की प्रक्रिया चल रही थी. इंग्लेंड में आम जनता को जो अधिकार दिए जाते थे, वैसे अधिकार भारत में भी लागु होने वाले थे. भारत में आने वाले वर्षों में मताधिकार मिलेगा तो शुद्रो-अतिशुद्रो को भी मिलेगा. 3 % ब्राह्मण जनसंख्या में से कट्टरपंथी ब्राह्मण राजकीय नेतृत्व नहीं कर शकेंगे ऐसी चुनौती भी उनके सामने आ रही थी.

1919 में भिन्न-भिन्न पक्षो और समुदायों ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से साऊथ बरोकमिटी के सामने निवेदन किया था. डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर तथा कर्मवीर शिंदे ने अछूतो की दुर्दशा के संबंध में ज्ञापन देकर अछूतो के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र तथा आरक्षित सीटों की मांग की. इसी वर्ष शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य में अश्पृश्यता के अंत करने का आदेश जारी कर के उन्हें सार्वजनीक़ स्थलों के उपयोग के अधिकार प्रदान किए.

(6)1920 में बालगंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र के पुरातनपंथी ब्राह्मणों के लिए महात्मा गाँधी तथा उदार ब्राह्मणों के साथ काम करना कठिन था. सत्य शोधक समाज के नेता जाधव और जवलकर की देश के दुश्मननाम की पुस्तक में ब्राह्मणवाद के समर्थक बाल गंगाधर तिलक और विनायक सावरकर को देश के दुश्मन बताए थे. ईस पुस्तक को जप्त किया गया था. 1920 में पुस्तक की जप्ती के खिलाफ न्यायलय से मुक़दमा जित कर डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने ईस पुस्तक को सार्वजनिक करवाया.

(71923 में ब्रिटिश सरकार ने एक आदेश निकला,-“कोई भी शिक्षा संस्था जो सरकार से अनुदान लेती है, उसमें अछूतो(sc) को प्रवेश देने से इन्कार करनेवाली संस्था का अनुदान बंध कर दिया जाएगा.
17 सितम्बर 1923 में मुंबई सरकार के वित् मंत्रालय ने एक आदेश निकाला, जिसमे सरकारी कार्यालयों और संस्थाओ में नीचे के वर्ग में जहा तक वंचित जातियो के जरिए खाली स्थान भरने में नहीं आते, तब तक उन स्थानों पर ब्राह्मणों और उनकी समकक्ष जातियो की भर्ती नहीं की जाए, ऐसा प्रतिबंध आया.

(8) ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य ये तीन वर्ण यज्ञोपवित पहन सकते थे. शुद्रो-अतिशुद्रो और स्त्रियों को न तो यज्ञोपवित धारण करने का अधिकार था न शिक्षा ग्रहण करने का.

अंग्रेजी शासन में शुद्रो-अतिशुद्रो में शिक्षा पाना तो आरंभ हुआ, किन्तु उच्च जतियों की बराबरी के लिए यज्ञोपवित धारण करने का आन्दोलन भी उत्तरप्रदेश और बिहार के अहीरों- यादवो ने आरंभ किया. बिहार के मुंगेर जिले के लखीसराय थाना के क्षेत्र के लाखुचक गांव में सामूहिक रूप से यज्ञोपवित धारण करने का संमेलन अहीरों ने आयोजित किया. ब्राह्मणवादी ऐसा किस प्रकार सहन कर सकते थे?

यादवो के संमेलन पर रामपुर के भूमिहार-जमीदार नारायण सिंह ने हाथी पर सवार होकर सेंकडो की हथियार बंध सेना के साथ आक्रमण किया. यादवो को ऐसा होने की आशंका थी और उन्हों ने उस बात की जानकारी लखीसराय थाने में दे दी थी. हजारों की संख्या में एकत्रित हुए यादवो ने अपनी लाठियों से प्रतिकार करके भूमिहारो की सेना को डेढ़ मिल पीछे खदेड़ दिया. एस.डी.एम., एस.पी., पुलिस तथा सेना के जवान वहा आ पहुचे. उन्हों ने भी भूमिहारो को गोली चलाने की चेतावनी देकर रोका. ईस घटना में जिला कलेक्टर एवं जिला मजिस्ट्रेट ने भूमिहार नेता नारायण सिंह पर 16 हजार रूपये का दंड किया.

(9) उतरप्रदेश में रायसाहब रामचरण की अध्यक्षता में शुद्र-अतिशुद्रो का संगठन आदि हिंदु समाज’ 1919 में लखनऊ में स्थापित हुआ. 1925 में साइमन कमिसन देश के पिछडे वर्गों की समस्याओ को जानने के लिए लखनऊ आया तब रायसाहब रामचरण तथा शिवदयाल सिंह चौरसिया ने फ्रेंचाइज़ कमिटी के नियुक्त सदस्य के रूप में शुद्रो-अतिशुद्रो की समस्याओ के संबंध में कमीशन के समक्ष पक्ष प्रस्तुत किया था.

आदि हिंदु समाजशुद्र वर्ण की जातियो को जागृत करता था और उसके जैसे ही एक दुसरे संगठन ने उत्तरभारत में अछूतो को जागृत करना आरम्भ किया. स्वामी अछुतानंद ने 1923 में ऑल इंडिया आदि हिंदु महासभाकी स्थापना की थी. देश के भिन्न-भिन्न प्रदेशो के शहरो अलाहाबाद, लखनऊ, कानपूर, अल्मोड़ा, जयपुर तथा अमरावती में संमेलन करके उन्होंने देश के अछूतो में जागृति का प्रवाह प्रवाहित किया.

ऊपर बताये अनुसार सारे देश में गेर- ब्राह्मण शुद्र-अतिशुद्र जातियों में 1873 से 1925 की समयावधि में सामाजिक समानता हेतु आन्दोलन फ़ैल रहा था. ब्राह्मण जाति के सामाजिक प्रभुत्व के विरुद्ध संकट बढ़ रहे थे, तब राष्ट्रिय स्तर पर ब्राह्मण जाति के स्थापित किए हुए हितों की रक्षा और संवर्धन के लिए एक भी संगठन नहीं था.
ब्राह्मणवादी स्थापित हितों के सामने सबसे बड़ी आवाज 1873 से 1925 के बीच महाराष्ट्र के महात्मा जोतिबा फूले, छत्रपति शाहूजी महाराज और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा उठाई जाती रही. 1920 से 1924 तक की तत्कालीन महाराष्ट्र की सामाजीक़ स्थिति का वर्णन संघ के स्वयंसेवक ना.ह.पालकर लिखित डॉ. हेडगेवारजीवन कथा के पृष्ठ-213 पर मिलती है. इसमें लिखा है,


ईस समय महाराष्ट्र में सभी ब्राह्मणों, गेर-ब्राह्मणों के बीच बहुत कटुता व्याप्त हो गई थी. इससे मुसलमानों को आशा थी की, ईस कटुता का लाभ उठाकर हिंदु संगठन की तयारी करनेवाले तथा मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करनेवाले उजले लोगो (ब्राह्मणों) को अच्छा बोधपाठ पढाया जा सकेगा. कारण यह था की, कमसे कम उस समय तो गेर-ब्राह्मणवादी और मुस्लमान दोनों ही उजले (ब्राह्मण) वर्ग के विरोध में खडे थे.
ऊपर वर्णित स्थिति और संयोगो ने संघ की स्थापना के लिए महाराष्ट्र के कट्टर ब्राह्मणों को क्या प्रेरित नहीं किया होगा?

वैदिक ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति की चार वर्ण की व्यवस्था की मान्यता से हट कर सत्य शोधक समाजद्वारा आरंभ की गई सामाजिक समानता की जुम्बेश को छत्रपति शाहूजी महाराज तथा डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा सतत नेतृत्व मिलता रहा था. ये कट्टरपंथी ब्राहमणों के लिए सहन न हो सके ऐसी स्थिति थी.
देश में वैचारिक हिसाब से ब्राह्मण दो भाग में बंट चुके थे. पुराणपंथी ब्राह्मण जो वैदिक संस्कृति में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरोधी थे. दूसरे उदार ब्राह्मण थे जो सामाजिक समानता तथा सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार और समर्थन करते थे.

महाराष्ट्र में कट्टर पुराणपंथी ब्राह्मणों का नेतृत्व बालगंगाधर तिलक करते थे. जब की उदार ब्राह्मणों का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले करते थे. दोनों ही गुट कोंग्रेस से जुड़े हुए थे. राष्ट्रिय स्तर पर गोपाल कृष्ण गोखले और मोतीलाल नेहरु जैसे उदार ब्राह्मण नेता महात्मा गाँधी के साथ थे. जब की डॉ. हेडगेवार जैसे कितने ही पुराणपंथी ब्राह्मण कार्यकर्ता बाल गंगाधर तिलक के साथ थे. तिलक का सपना अंग्रेजी शासन को हटाकर देश में पेश्वाशाही की पून:स्थापना का था.
डॉ. हेडगेवार और सावरकर दोनों बाल गंगाधर तिलक के अनुयायी थे. गुजराती बनिया गांधीजी की बढती जाती लोकप्रियता से परेशान तिलक ने अपने समर्थक ब्राह्मणों से कहा था की, भारत के राष्ट्रिय आन्दोलन का नेतृत्व गेर-ब्राह्मण के हाथो मे जाने से रोकना चाहिए. देश में, व्यापक स्तर पर प्रदेशो में शुद्रो-अतिशुद्रो के उत्थान हेतु संघर्ष शुरू हो गए थे. ऐसे संयोगो में ब्राह्मणवाद के सामने सीधी चुनौती आगे बढ़ रही थी.

ऐसी स्थिति में डॉ. हेडगेवार तथा तिलक के अनुयायी पुरातनपंथी ब्राह्मणों के सामने दो ही विकल्प थे. एक विकल्प देश की आझादी की लड़ाई लड़नी और कोंग्रेस में रहकर उदार ब्राह्मण नेताओ के नियंत्रण में काम करना था. दूसरा विकल्प अपनी ब्राह्मण जाति के स्थापित हितों की रक्षा करने के हेतु महाराष्ट्र के पुरातनपंथी ब्राह्मणों को संगठित करके सामाजिक परिवर्तन को रोकना था. डॉ. हेडगेवार ने देश की स्वतंत्रता से अधिक अपनी ब्राह्मण जाति के हित को महत्व दिया.


संघ के भाष्यकार और दूसरे ब्राह्मण सर संघचालक गोलवलकर ने डॉ. हेडगेवार की ऐसी भूमिका को स्पष्ट किया और ब्राह्मण स्वयंसेवकों को कहा की,-“हमें अपनी Race (जाति वंश) का विचार करना चाहिए. Cause of the race is cause of the nation. तुम जाति के कार्य को बडा समजो, अपने को बडा न समजो.

Saturday 25 March 2017

ब्राह्मण सबसे बड़ा देश का दुश्मन ,पिछड़े समझ नहीं पा रहे है मनुवादियो के षड्यंत्र को : दिलीप यादव


1977 मेँ जनता पार्टी कीसरकार बनी जि मोरारजी द ब्राह्मण थे जिनको जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिऐ नामांकित किया था।
चुनाव मेँ जाते समय जनता पार्टी ने अभिवचन दिया था कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वे काका कालेलकर कमीशन लागू करेंगे। जब उनकी सरकार बनी तो OBC का एक प्रतिनिधिमंडल मोरारजी को मिला और काका कालेलकर कमीशन लागू करने के लिऐ मांग की मगर मोरारजी ने कहा कि कालेलकर कमीशन की रिपोर्ट पुरानी हो चुकी है, इसलिए अब बदली हुई परिस्थिति मेँ नयी रिपोर्ट की आवश्यकता है। यह एक शातिर बाह्मण की OBC को ठगने की एक चाल थी।
प्रतिनिधिमडंल इस पर सहमत हो गया और B.P. Mandal जो बिहार के यादव थे, उनकी अध्यक्षता मेँ मंडल कमीशन बनाया गया।.
बी पी मंडल और उनके कमीशन ने पूरे देश में घूम-घूमकर 3743 जातियोँ को OBC के तौर पर पहचान किया जो 1931 की जाति आधारित गिनती के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 52% थे। मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट मोरारजी सरकार को सौपते ही, पूरे देश मेँ बवाल खङा हो गया। जनसंघ के 98 MPs के समर्थन से बनी जनता पार्टी की सरकार के लिए मुश्किल खङी हो गयी।
उधर अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व मेँ जनसंघ के MPs ने दबाव बनाया कि अगर मंडल कमीशन लागू करने की कोशिश की गयी तो वे सरकार गिरा देंगे। दूसरी तरफ OBC के नेताओँ ने दबाव बनाया ।
फलस्वरूप अटल बिहारी बसजपेयी ने मोरारजी की सहमति से जनता पार्टी की सरकार गिरा दी।
इसी दौरान भारत की राजनीति मेँ एक Silent revolution की भूमिका तैयार हो रही थी जिसका नेतृत्व आधुनिक भारत के महानतम् राजनीतिज्ञ कांशीराम जी कर रहे थे।
कांशीराम साहब और डी के खापर्डे ने 6 दिसंबर 1978 में अपनी बौद्धिक बैँक बामसेफ की स्थापना की जिसके माध्यम से पूरे देश मेँ OBC को मंडल कमीशन पर जागरण का कार्यक्रम चलाया। कांशीराम जी के जागरण अभियान के फलस्वरूप देश के OBC को मालुम पड़ा कि उनकी संख्या देश मेँ 52% मगर शासन प्रशासन में उनकी संख्या मात्र 2% है। जबकि 15% तथाकथित सवर्ण प्रशासन में 80% है। इस प्रकार सारे आंकङे मण्डल की रिपोर्ट मेँ थे जिसको जनता के बीच ले जाने का काम कांशीराम जी ने किया।
अब OBC जागृत हो रहा था। उधर अटल बिहारी ने जनसंघ समाप्त करके BJP बना दी। 1980 के चुनाव मेँ संघ ने इंदिरागांधी का समर्थन किया और इंन्दिरा जो 3 महीने पहले स्वयं हार गयी थी 370 सीट जीतकर आयी।

इसी दौरान गुजरात में आरक्षण के विरोध में प्रचंड आन्दोलन चला।
मजे की बात यह थी कि इस आन्दोलन में बङी संख्या OBC स्वयँ सहभागी था, क्योँकि ब्राह्मण-बनिया "मीडीया" ने प्रचार किया कि जो आरक्षण SC,ST को पहले से मिल रहा है वह बढ़ने वाला है।
गुजरात में अनु. जाति के लोगों के घर जलाये गये। नरेन्द्र मोदी इसी आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता थे।



कांशीराम जी अपने मिशन को दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढा रहे थे।
ब्राह्मण अपनी रणनीति बनाते पर
उनकी हर रणनीति की काट कांशीराम जी के पास थी। कांशीराम ने वर्ष 1981 में DS4 ( DSSSS) नाम की "आन्दोलन करने वाली विंग" को बनाया। जिसका नारा था 'ब्राह्मण बनिया ठाकुर छोङ बाकी सब हैं DS4!'
DS4 के माध्यम से ही कांशीराम जी ने एक और प्रसिद्ध नारा दिया "मंडल कमीशन लागु करो वरना सिँहासन खाली करो।' इस प्रकार के नारो से पूरा भारत गूँजने लगा।

1981 में ही मान्यवर कांशीराम ने हरियाणा का विधानसभा चुनाव लङा, 1982 मेँ ही उन्होने जम्मू काश्मीर का विधान सभा का चुनाव लङा।
अब कांशीराम जी की लोकप्रियता अत्यधिक बढ गयी।
ब्राह्मण-बनिया "मीडिया" ने उनको बदनाम करना शुरू कर दिया। उनकी बढती लोकप्रियता से इंन्दिरा गांधी घबरा गयीं।
इंन्दिरा को लगा कि अभी-अभी जेपी के जिन्नसे पीछा छूटा कि अब ये कांशीराम तैयार हो गये। इंन्दिरा जानती थी कांशीराम जी का उभार जेपी से कहीँ ज्यादा बङा खतरा ब्राह्मणोँ के लिये था। उसने संघ के साथ मिलने की योजना बनाई।
अशोक सिंघल की एकता यात्रा जब दिल्ली के सीमा पर पहुँची, तब इंन्दिरा गांधी स्वयं माला लेकर उनका स्वागत करने पहुंची।

इस दौरान भारत में एक और बङी घटना घटी।
भिंडरावाला जो खालिस्तान आंदोलन का नेता था, जिसको कांग्रेस ने अकाल तख्त का विरोध करने के लिए खङा किया था, उसने स्वर्णमंदिर पर कब्जा कर लिया।
RSS और कांग्रेस ने योजना बनाई अब मण्डल कमीशन आन्दोलन को भटकाने के लिऐ हिन्दुस्थान vs खालिस्थान का मामला खङा किया जाय। इंन्दिरा गांधी आर्मी प्रमुख जनरल सिन्हा को हटा दिया और एक साऊथ के ब्राह्मण को आर्मी प्रमुख बनाया। जनरल सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया।
आर्मी में भूचाल आ गया। नये आर्मी प्रमुख इंन्दिरा गांधी के कहने पर OPERATION BLUE STAR
की योजना बनाई और स्वर्ण मंदिर के अन्दर टैँक घुसा दिया।
पूरी आर्मी हिल गयी। पूरे सिक्ख समुदाय ने इसे अपना अपमान समझा और 31 Oct. 1984 को इंन्दिरा गांधी को उनके दो Personal guards बेअन्तसिह और सतवन्त सिँह, जो दोनो अनुसुचित जाति के थे, ने इंन्दिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया।
माओ अपनी किताब 'ON CONTRADICTION' में लिखते हैं कि शासक वर्ग किसी एक षडयंत्र को छुपाने के लिऐ दुसरा षडयंत्र करता है, पर वह नहीँ जानता कि इससे वह अपने स्वयँ के लिए कोई और संकट खङा कर देता है।' माओकी यह बात भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य मेँ सटीक साबित होती है।
मंडल कमीशन को दबाने वाले षडयंत्र का बदला शासक वर्ग ने 'इंन्दिरा गांधी' की जान देकर चुकाया।
इंन्दिरा गांधी की हत्या के तुरन्त बाद राजीव गांधी को नया प्रधानमंत्री मनोनीत कर दिया गया। जो आदमी 3 साल पहले पायलटी छोङकर आया था, वो देश का 'मुगले आजम' बन गया। इंन्दिरा गांधी की अचानक हत्या से सारे देश मेँ सिक्खोँ के विरूद्ध माहौल तैयार किया गया। दंगे हुऐ। अकेले दिल्ली में 3000 सिक्खो का कत्लेआम हुआ जिसमें तत्कालीन मंत्री भी थे। उस दौरान राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैल सिँह का फोन तक प्रधनमंत्री राजीव गांधीने रिसीव नहीँ किये। उधर कांशीराम जी अपना अभियान
जारी रखे हुऐ थे। उन्होनेँ अपनी राजनीतिक पार्टी BSP की स्थापना की और सारे देश में साईकिल यात्रा निकाली। कांशीराम जी ने एक नया नारा दिया "जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी ऊतनी हिस्सेदारी।"

कांशीराम जी मंडल कमीशन का मुद्दा बङी जोर शोर से प्रचारित किया, जिससे उत्तर भारत के पिछङे वर्ग मेँ एक नयी तरह की सामाजिक, राजनीतिक चेतना जागृत हुई।
इसी जागृति का परिणाम था कि पिछङे वर्ग नया नेतृत्व जैसे कर्पुरी ठाकुर, लालु, मुलायम का उभार हुआ।
अब कांशीराम शोषित वंचित समाज के सबसे बङे नेता बनकर उभरे। वही 1984 का चुनाव हुआ पर इस चुनाव कांशीराम ने सक्रियता नहीँ दिखाई ।पर राजीव गांधी को सहानुभुति लहर का इतना फायदा हुआ कि राजीव गांधी 413 MPs चुनवा कर लाये। जो राजीव जी के नाना ना कर सके वह उन्होने कर दिखाया।
सरकार बनने के बाद फिर मण्डल का जिन्न जाग गया। OBC के MPs संसद मेँ हंगामे शुरू कर दिये । शासक वर्ग फिर नयी व्युह रचना बनाने की सोची।

अब कांशीराम जी के अभियानो के कारण OBC जागृत हो चुका था। अब शासक वर्ग के लिऐ मंडल कमीशन का विरोध करना संभव नहीँ था।
2000 साल के इतिहास मेँ शायद ब्राह्मणोँ ने पहली बार कांशीराम जी के सामने असहाय महसूस किया।
कोई भी राजनीतिक उदेश्य इन तीन साधनोँ से प्राप्त किया जा सकता है वह है-
1) शक्ति संगठन की,
2) समर्थन जनता का और
3) दांवपेच नेता का।

कांशीराम जी के पास तीनो कौशल थे और दांवपेच के मामले मेँ वे ब्राह्मणोँ से 21 थे। अब यह समय था जब कांग्रेस और संघ की सम्पूर्ण राजनीतिक केवल कांशीराम जी पर ही केन्द्रित हो गया।
1984 के चुनावोँ में बनवारी लाल पुरोहित ने मध्यस्थता कर राजीव गांधी और संघ का समझौता करवाया एवं इस चुनाव मेँ संघ ने राजीव गांधी का समर्थन किया। गुप्त समझौता यह था कि राजीव गांधी राम मंदिर आन्दोलन का समर्थन करेगेँ और हम मिलकर रामभक्त OBC को मुर्ख बनाते है।
राजीव गांधी ने ही बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाये, उसके अन्दर राम के बाल्यकाल की मूर्ति भी रखवाईं ।

अब ब्राह्मण जानते थे अगर मण्डल कमीशन का विरोध करते है तो "राजनीतिक शक्ति" जायेगी, क्योकि 52% OBC के बल पर ही तो वे बार बार देश के राजा बन जाते थे, और समर्थन करते हैं तो कार्यपालिका में जो उन्होने स्थायी सरकार बना रखी थी वो छिन जाने खा खतरा था।
विरोध करें तो खतरा, समर्थन करें तो खतरा। करें तो क्या करें?

तब कांग्रेस और संघ मिलकर OBC पर विहंगम दृष्टि डाली तो उनको पता चला कि पूरा OBC रामभक्त है।
उन्होँने मंडल के आन्दोलन को कमंडल की तरफ मोङने का फैसला किया। सारे देश में राम मंदिर अभियान छेङ दिया। बजरंग दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया जो पिछङा था।
कल्याण सिंह, रितंभरा, ऊमा भारती, गोविन्दाचार्य आदि वो मुर्ख OBC थे जिनको संघ ने सेनापति बनाया।
जिस प्रकार ये लोग हजारोँ सालो से ये पिछङो में विभीषण पैदा करते रहे इस बार भी इन्होंने ऐसा ही किया।

वहीँ दूसरी तरफ अनियंत्रित राजीव गांधी ने खुद को अन्तर्राष्ट्रीय नेता बनाने एवं मंडल कमीशन का मुद्दा दबाने के लिऐ प्रभाकरण से समझौता किया तथा प्रभाकरण को वादा किया कि जिस प्रकार उसकी माँ (इंदिरागांधी) ने पाकिस्तान का विभाजन कर देश-दुनिया की राजनीति में अपनी धाक पैदा की वैसे वह भी श्रीलंका का विभाजन करवाकर प्रभाकरण को तमिल राष्ट्र बनवाकर देगा।
वहीं राजीव गांधी की सरकार में वी.पी. सिंह रक्षा मंत्री थे।
बोफोर्स रक्षा सौदे में भ्रष्टाचार राजीव गांधी की सहायता से किया गया जिसको उजागर किया गया। यह राजीव गांधी की साख पर बट्टा था।

वीपी सिंह इसको मुद्दा बनाकर अलग जन मोर्चा बनाया। अब असली घमासान था। 1989 के चुनाव की लङाई दिलकश हो चली थी। पूरे उत्तर भारत में कांशीराम जी बहुजन समाज के नायक बनकर उभरे। उन्होने 13 जगहो पर चुनाव जीता जबकि 176 जगहोँ पर वे कांग्रेस का पत्ता साफ करने में सफल हो गये।
राजीव गांधी जो कल तक दिल्ली का मुगल था कांशीराम जी के कारण वह रोड मास्टर बन गया। कांग्रेस 413 से धङाम 196 पर आ गयी। वी पी सिंह के गठबनधन 144 सीटें मिली, जिसके कारण वी पी सिंह ने चुनाव में जाने की घोषणा की और कहा कि यदि उनकी सरकार बनी तो मंडल कमीशन लागू करेंगे।

चन्द्रशेखर व चौधरी देवीलाल के साथ मिलकर सरकार बनाने की योजना वी पी सिंह द्वारा बनायी गयी। चौधरी देवीलाल प्रधानमंत्री पद के सबसे बङे दावेदार थे पर योजना इस प्रकार से बनायी गयी थी कि संसदीय दल की बैठक में दल का नेता (प्रधानमंत्री) चुनने की माला चौ. देवीलाल के हाथ में दे दी जाए । चौ. देवीलाल (इस झूठे सम्मान से कि नेता चुनने का हक़ उनको दिया गया) माला वी पी के गले में डाल दिया। इस प्रकार वी पी सिंह नये प्रधानमंत्री बने।
प्रधानमंत्री बनते ही OBC नेताओं ने मंडल कमीशन लागू करवाने का दबाव डाला। वी पी सिँह ने बहानेबाजी की पर अन्त में निर्णय करने के लिए चौ. देवीलाल की अध्यक्षता मेँ एक कमेटी बनायी।
याद रहे कि मंडल कमीशन के चैयरमैन बी. पी. मंडल यादव थे, शायद इसीलिए मंडल कमीशन की लिस्ट में उन्होने यादवों को तो शामिल कर लिया मगर जाटों को शामिल नही किया।
चौधरी देवीलाल ने कहा कि इसमे जाटों को शामिल करो फिर लागू करो मगर ठाकुर वी पी सिँह इनकार कर दिया।

चौधरी देवीलाल नाराज होकर कांशीराम जी के पास गये और पूरी कहानी सुनाकर बोले मुझे आपका साथ चाहिये। कांशीराम जी बोले कि 'ताऊ तुझे जनता ने "Leader" बनाया मगर ठाकुर ने "Ladder" (सीढी) बनाया।
तेरे साथ अत्याचार हुआ और दुनिया में जिसके साथ अत्याचार होता है कांशीराम उसका साथ देता है।' कांशीराम जी और देवीलाल ने वी पी सिंह के विरोध में एक विशाल रैली करने वाले थे। उसी दौरान शरद यादव और रामविलास पासवान ने वी पी सिंह से मुलाकात की। उन्होँने वी पी से कहा कि हमारे नेता आप नही बल्कि चौधरी देवीलाल है। अगर आप मंडल लागू कर दे तो हम आपके साथ रहेंगे अन्यथा हम भी देवीलाल और कांशीराम का साथ देंगे।
ठाकुर वी पी सिँह की कुर्सी संकट से घिर गयी। कुर्सी बचाने के डर से वी पी सिंह ने मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा कर दी।
सारे देश मेँ बवाल खङा हो गया। Mr. Clean से Mr. Corrupt बन चुके राजीव गांधी ने बिना पानी पिये संसद में 4 घंटे तक मंडल के विरोध में भाषण दिया।
जो व्यक्ति 10 मिनिट तक संसद में ठीक से बोल नहीं सकता था, उसने OBC का विरोध अपनी पूरी ऊर्जा से पानी पी-पी कर किया और 4 घंटे तक बोला।
वी पी सिंह सरकार गिरा दी गयी। चुनाव घोषणा की हुयी और एम नागराज नाम के ब्राह्मण ने उच्चतम न्यायालय में आरक्षण के विरोध में मुकदमा (केश) कर दिया ।
इधर राजीव गांधी ने जो प्रभाकरण से वादा किया था वो पूरा नही कर सके थे बल्कि UNO के दबाव मे ऊन्होँने शांति सेना श्रीलंका भेज दी थी। राजीव गांधी के कहने पर प्रभाकरण के साथी कानाशिवरामन को BOMB बनाने की ट्रेनिँग दी गयी थी। जब प्रभाकरण को लगा कि राजीव गाँधी ने धोखा किया। उसने काना शिवरामन को राजीव गांधी की हत्या कर देने का आदेश दिया और मई 1991 मे राजीव गांधी को मानव बम द्वारा ऊङा दिया गया। एक बार फिर माओ का कथन सत्य सिद्ध हुआ।और मंडल के भूत ने राजीव गांधी की जान ले ली।

राजीव गांधी हत्या का फायदा कांग्रेस को हुआ। कांग्रेस के 271 सांसद चुनकर आये। शिबु सोरेन व एक अन्य को खरीदकर कांग्रेस ने सरकार बनायी। वी पी नरसिंम्हराव दक्षिण के ब्राह्मण प्रधानमंत्री बने।

दूसरी तरफ मंडल कमीशन के विरोध मे Supreme court के 31 आला ब्राह्मण वकील सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये।
लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे, पटना से दिल्ली आये। सारे ब्राह्मण-बनिया वकीलों से मिले। कोई भी वकील पैसा लेकर भी मंडल के समर्थन में लङने के लिऐ तैयार नही था।
लालू यादव ने रामजेठमलानी से निवेदन किया मगर जेठमलानी Criminal Lawyer थे जबकि यह संविधान का मामला था, फिर भी रामजेठमलानी ने यह केस लङा। मगर SUPREME COURT ने 4 बङे फैसले OBC के खिलाफ दिये।
1. केवल 1800 जातियों को OBC माना।

2. 52% OBC को 52% देने की बजाय संविधान के विरोध में जाकर 27% ही आरक्षण होगा।

3. OBC को आरक्षण होगा पर प्रमोशन मेँ आरक्षण नहीँ होगा।

4. क्रीमीलेयर होगा अर्थात् जिस OBC का INCOME 1 लाख होगा उसे आरक्षण नहीँ मिलेगा।

इसका एक आशय यह था कि जिस OBC का लङका महाविद्यालय मेँ पढ रहा है उसे आरक्षण नहीँ मिलेगा बल्कि जो OBC गांव मेँ ढोर ढाँगर
चरा रहा है उसे आरक्षण मिलेगा।
यह तो वही बात हो गई कि दांत वाले से चना छीन लिया और बिना दांत वाले को चना देने कि बात करता है ताकि किसी को आरक्षण का लाभ न मिले।
ये चार बङे फैसले सुप्रीम कोर्ट के सेठ जी ऍव भट्टजी ने OBC के विरोध मेँ दिये। दुनिया की हर COURT में न्याय मिलता है जबकि भारत की SUPREME COURT ने 52% OBC के हक और अधिकारों के विरोध का फैसला दिया।
भारत के शासक वर्ग अपने हित के लिऐ सुप्रीम कोर्ट जैसी महान् न्यायिक संस्था का दुरूपयोग किया।
मंडल को रोकने के लिऐ कई हथकंडे अपनाऐ हुऐ थे जिसमें राम मंदिर आन्दोलन बहुत बङा हथकंडा था। उत्तर प्रदेश मेँ बीजेपी ने मजबूरी मेँ कल्याण सिंह जो कुर्मी थे उनको मुख्यमंत्री बनाया।
आपको बताता चलूं की कांशीराम जी के उदय के पश्चात् ब्राह्मणोँ ने लगभग हर राज्य में OBC मुख्यमंत्री बनाना शुरू किये ताकि OBC का जुङाव कांशीराम जी के साथ न हो। इसी वजह से एक कुर्मी को मुख्यमंत्री बनाया गया।

आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली। नरेन्द्र मोदी आडवाणी के हनुमान बने। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने मंडल विरोधी निर्णय 16 नवम्बर 1992 को दिया और शासक वर्ग ने 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी। बाबरी मस्जिद गिराने मे कांग्रेस ने बीजेपी का पूरा साथ दिया। इस प्रकार सुप्रिम कोर्ट के निर्णय के बारे में OBC जागृत न हो सके, इसीलिए बाबरी मस्जिद गिराई गयी।
शासक वर्ग ने तीर मुसलमानों पर चलाया पर निशाना OBC थे। जब भी उन पर संकट आता है वे हिन्दु और मुसलमान का मामला खङा करते हैं। बाबरी मस्जीद गिराने के बाद कल्याणसिंह सरकार बर्खास्त कर दी गयी।
दूसरी तरफ कांशीराम जी UP के गांव गांव जाकर षडयंत्र का पर्दाफाश कर रहे थे। उनका मुलायम सिंह से समझौता हुआ। विधानसभा चुनाव हुए कांशीराम जी की 67 सीट एवं मुलायम सिँह को 120 सीटें मिली। बसपा के सहयोग से मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने।
UP के OBC और SC के लोगों ने मिलकर नारा लगाया "मिले मुलायम कांशीराम हवा मेँ ऊङ गये जय श्री राम।"

शासक जाति को खासकर ब्राह्मणवादी सत्ता को इस गठबन्धन से और ज्यादा डर लगने लगा।
इंडिया टुडे ने कांशीराम भारत के अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं ऐसा ब्राह्मणोँ को सतर्क करने वाला लेख लिखा। इसके बाद शासक वर्ग अपनी राजनीतिक रणनीति में बदलाव किया। लगभग हर राज्य का मुख्यमंत्री ऊन्होनेँ शूद्र(OBC) बनाना शुरू कर दिये। साथ ही उन्होने दलीय अनुशासन को कठोरता से लागू किया ताकि निर्णय करते वक्त वे स्वतंत्र रहें।

1996 के चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी और दो तीन अल्पमत वाली सरकारें बनी। यह गठबन्धन की सरकारें थी। इन सरकारों में सबसे महत्वपुर्ण सरकार H.D. देवेगौङा (OBC) की सरकार थी जिनके कैबिनेट में एक भी ब्राह्मण मंत्री नही था। आजाद भारत के इतिहास मे पहली बार ऐसा हुआ जब किसी प्रधानमंत्री के केबिनेट मे एक भी ब्राह्मण मंत्री नही था। इस सरकार ने बहुत ही क्रांतिकारी फैसला लिया। वह फैसला था OBC की गिनती करने का फैसला जो मंडल का दूसरी योजना थी, क्योँकि 1931 के आंकङे बहुत पुराने हो चुके थे। OBC की गिनकी अगर होती तो देश मे OBC की सामाजिक, आर्थिक स्थिति क्या है और उसके सारे आंकङे पता चल जाते। इतना ही नही 52% OBC अपनी संख्या का उपयोग राजनीतिक ऊद्देश्य के लिऐ करता तो आने वाली सारी सरकारेँ OBC की ही बनती। शासक वर्ग के समर्थन से बनी देवेगोङा की सरकार फिर गिरा दी गयी।

शासक वर्ग जानता है कि जब तक OBC धार्मिक रूप से जागृत रहेगा तब तक हमारे जाल मेँ फँसता रहेगा जैसे 2014 मेँ फंसा। शायद जाति अधारित गिनती ओबीसी की करने का निर्णय देवेगौङा सरकार ने नहीं किया होता तो शायद उनकी सरकार नही गिरायी जाती।
ब्राह्मण अपनी सत्ता बचाने के लिये हरसंभव प्रयत्न में लगे रहे। वे जानते थे कि अगर यही हालात बने रहे थे तो ब्राह्मणों की राजनीतिक सत्ता छीन ली जायेगी।

जो लोग सोनिया को कांग्रेस का नेता नहीँ बनाना चाहते थे वे भी अब सोनिया को स्वीकार करने लगे।
कांग्रेस वर्किग कमेटी मे जब शरद पवार ने सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा उठाया तो आर.के. धवन नामक ब्राह्मण ने थप्पङ मारा। पी ऐ संगमा, शरद पवार, राजेश पायलट, शरद पवार, सीताराम केसरी, सबको ठिकाने लगा दिया। शासक वर्ग ने गठबन्धन की राजनीति स्वीकार ली।

उधर अटल बिहारी कश्मीर पर गीत गाते गाते 1999 मे फिर प्रधानमंत्री हुऐ। अगर कारगिल नही हुआ होता तो अटल फिर शायद चुनकर आते। सरकार बनाते ही अटल बिहारी ने संविधान समीक्षा आयोग बनाने का निर्णय लिया।
अरूण शौरी ने बाबासाहब अम्बेडकर को अपमानित करने वाली किताब 'Worship of false gods' लिखी। इसके विरोध मेँ सभी संगठनो ने विरोध किया। विशेषकर बामसेफ के नेतृत्व मेँ 1000 कार्यक्रम सारे देश में आयोजित किये गये। अटल सरकार ने अपना फैसला वापस (पीछे) ले लिया।

ये भी नया हथकंडा था वास्तविक मुद्दो को दबाने का। फिर 2011 में जनगणना होनी थी। मगर OBC की जनगणना नहीँ करने का फैसला किया गया। इसलिए भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संख्याबल के हिसाब से शासक बनने वाला ओबीसी वर्ग सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणवादी/मनुवादी शासकों का पिछलग्गू बन कर रह गया है। वो अपना नुकसान तो कर ही रहा है, साथ में अपने दलित भाई बंधुओं का भी नुकसान कर रहा है, जो ब्राह्मणवादी सत्ता को समाप्त करने का निरंतर प्रयत्नशील हैं