पूरे 18 साल पहले की बात है जब 20 मार्च सन्
2000 को अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के समानांतर जम्मू और
कश्मीर में अल्पसंख्यक सिख समुदाय के 35 लोगों की अनंतनाग जिले के छत्तीसिंहपुरा
गांव में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। सेना ने दावा किया था कि यह काम ”पाकिस्तान
समर्थित इस्लामिक कट्टर समूह लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों का है”।
इस घटना के इतने बरस बाद तमाम ऐसे साक्ष्य
सामने आ चुके हैं जो बताते हैं कि सेना का दावा गलत था। सिखों के साथ भारतीय राज्य
द्वारा किए गए इस ऐतिहासिक विश्वासघात को याद किया जाना ज़रूरी है ताकि यह समझा
जा सके कि लोकतांत्रिक कहलाने वाला एक राज्य कैसे काम करता है।
इंडिया टुडे में एक रिपोर्ट छपी जिसका शीर्षक
था, ”आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी में किया सिखों का पहला नरसंहार…”।
पत्रिका ने दावा किया कि ”लश्कर-ए-तैयबा के विदेशी सदस्य जिन्होंने
हत्याकांड को अंजाम दिया भारतीय फौज की वर्दी पहनकर आए थे जो फर्जी या चोरी की
थी।छत्तीसिंहपुरा के बाद राष्ट्रीय राइफल्स से पांच ”विदेशी
आतंकवादियों” को मार गिराने का दावा किया। ये लड़के बाद में
स्थानीय निकले। इसे पाथरीबल फर्जी मुठभेड़ कांड के नाम से जाना जाता है।
इकनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक सीबीआइ
ने 2006 में राष्ट्रीय राइफल्स के पांच सदस्यों को कथित तौर पर पांच नागरिकों
की हत्या का दोषी पाया, जिनमें तीन पर इलज़ाम लगाया गया था कि
वे पाकिस्तानी आतंकवादी थे जिन्होंने छत्तीसिंहपुरा में 35 सिखों का कत्ल किया
था। दो अन्य को अज्ञात आतंकवादी बताया गया था।
इस जांच का हिस्सा रहे अवकाश प्राप्त
लेफ्टिनेंट जनरल केएस गिल ने 2017 में सिख न्यूज़ एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू
में पत्रकार जसनीत सिंह को बताया कि छत्तीसिंहपुरा हत्याकांड में सीधे भारतीय
सेना का हाथ था और इस बारे में रिपोर्ट तत्कालीन एनडीए सरकार के गृहमंत्री एल.के.
आडवाणी को सौंपी गई थी।
आखिर क्या वजह थी सिखों को मारने की? शाहनवाज़
आलम अपने लेख ”नेशनल इंटरेस्ट, फिफ्थ कॉलम एंड
दि रोमांटिक किलर्स” में लिखते हैं- ”पहला, अंतरराष्ट्रीय
मंचों पर पाकिस्तान के ऊपर बढ़त बनाना। दूसरा, प्रवासी सिखों
की सहानुभूति बटोरना जो खालिस्तान के दिनों से ही भारत की सरकारों के विरोधी रहे
हैं। तीसरा, क्षेत्र में परमाणु प्रसार की भारत की कोशिशों
पर अमेरिका द्वारा चिंता जताए जाने को आंशिक तौर पर भटकाना।” वे
लिखते हैं कि स्वदेशी के मोर्चे पर यह इस हत्याकांड का इस्तेमाल सिखों को घाटी
छोड़कर जाने में उकसाने के लिए किया गया, ठीक वैसे ही जैसा जगमोहन ने हिंदुओं के
साथ किया था।
अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की यात्रा से
ठीक एक दिन पहले 20 मार्च, 2000 को हुए इस हत्याकांड पर रिपोर्ट
करते हुए फ्रंटलाइन ने लोगों के हवाले से लिखा कि, ”उन्होंने जैसे
ही गोली चलानी शुरू की, बंदूकधारी जय माता दी और जय हिंद के नारे लगाने
लगे। बिलकुल नाटकीय अंदाज़ में उनमें से एक शख्स हत्याओं के बीच ही रम की बोतल
से घूंट मारता रहा। जाते वक्त एक ने अपने साथी से कहा- गोपाल, चलो
हमारे साथ।”
दिलचस्प है कि इस हत्याकांड के रहस्य का
पहला परदाफाश खुद क्लिंटन ने मेडलीन अलब्राइट की किताब ”दि माइटी एंड दि
ऑलमाइटी: रिॅ्लेक्शंस ऑन अमेरिका, गॉड एंड वर्ल्ड अफेयर्स” के
फोरवर्ड में किया:
”2000 में भारत के अपने दौरे के दौरान कुछ हिंदू
आतंकवादियों ने 38 सिखों की हत्या कर दी। अगर मैंने वह यात्रा नहीं की होती तो
मारे गए लोग शायद अब भी जिंदा रहते। अगर मैंने इस डर से यात्रा न की होती कि पता
नहीं धार्मिक चरमपंथी क्या करेंगे, तो अमेरिका के राष्ट्रपति के बतौर मैं
अपना काम नहीं कर रहा होता।”
हिंदुत्ववादी ताकतों के हो हल्ले के बाद
प्रकाशक को फोरवर्ड का यह हिस्सा हटाना पड़ गया था लेकिन क्लिंटन ने वही लिखा था
जो वह मानते थे। इसकी पुष्टि बाद में स्ट्रोब टालबोट ने अपनी पुस्तक ”इंगेजिंग
इंडिया: डिप्लोमेसी, डेमोक्रेसी एंड दि बॉम्ब” में
की जब उन्होंने क्लिंटन के बारे में लिखा:
”उन्होंने इस आरोप को समर्थन नहीं दिया कि
पाकिस्तान उस हिंसा के पीछे था…।”
इतना ही नहीं, पाथरीबल में जो
मुठभेड़ सेना ने छत्तीसिंहपुरा के दोषियों की बताई थी और पांच युवकों को मार
गिराया था वह बाद में फर्जी साबित हुई। मोहम्मद सुहैल और वसीम अहमद नाम के दो
पाकिस्तानियों को दिसंबर 2000 में छत्तीसिंहपुरा का ”मास्टरमाइंड”
बताकर
पकड़ा गया था, वे बाद में निर्दोष बरी हो गए। फिर सवाल उठता
है कि छत्तीसिंहपुरा के सिखों का कत्लेआम किसने किया?
फ्रंटलाइन के अनुसार: ”31 अक्टूबर
2000 को जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री फ़ारुख अब्दुल्ला ने एलान किया कि
सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त जज एस. रत्नवेल पांडियन से हत्याकांड की जांच
के लिए कहा जाएगा। जब पूछा गया कि क्या उन्होंने इस जांच के लिए क्या दिल्ली
की मंजूरी ली है, तो उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि उन्हें ऐसी
किसी मंजूरी की दरकार नहीं है। अचानक चीजें बदल गईं। केवल एक पखवाड़ा बीता और
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से उनकी एक मुलाकात हुई और बाद में छत्तीसिंहपुरा
हत्याकांड की जांच को खत्म कर दिया गया… दिल्ली में अफसरों का कहना है कि
केंद्र सरकार छत्तीसिंहपुरा हत्साकांड की जांच के निर्णय पर नाराज़ थी। कहते हैं
कि वाजपेयी ने मुख्यमंत्री को कहा था कि उनके इस फैसले ने केंद्र सरकार को
शर्मिंदा किया है।”
आज 18 साल बाद छत्तीसिंहपुरा हत्याकांड और
पाथरीबल फर्जी मुठभेड़ के बारे में जानना-समझना भारतीय राज्य के चरित्र को समझने
के लिए बहुत आवश्यक है।
लेफ्टिनेंट जनरल केएस गिल का सिख न्यूज़ एक्सप्रेस
को दिया यह साक्षात्कार ज़रूर देखें। 30 मिनट 18 सेकेंड पर आपको छत्तीसिंहपुरा
हत्याकांड से संबंधित सवाल जवाब मिल जाएँगे। अगर इस बातचीत को पढ़ना हो तो यहाँ
क्लिक करें। फ्री प्रेस कश्मीर ने 20 मार्च यानी इस हत्याकांड की बरसी पर छापा है।
By – MediaVigil
================
‘अगर दोषी सैनिकों को छोड़ा गया तो लोकतंत्र से
भरोसा उठ जाएगा’
—————-
‘कल तक जो कुसूरवार थे. आज उन्हें रिहा किए जाने
की तैयारी है. पिछले सात-आठ सालों से हमारे साथ यही मज़ाक हो रहा है. कभी हमें
उम्मीद दी जाती है तो कभी निराशा में छोड़ दिया जाता है. अगर सरकार हमें न्याय
नहीं दे सकती है तो फांसी पर चढ़ा दे. इतने साल हमने डर के साए में बिताए हैं.
हमें धमकियां मिलती हैं. सबने हमें अकेला छोड़ दिया है. इतने सालों में कोई भी
मंत्री, विधायक या सरकारी अधिकारी हमसे मिलने नहीं आया है.’ ये
कहना है शहज़ाद अहमद की पत्नी ज़बीना अख़्तर का.
शहज़ाद अहमद उन तीन युवकों में शामिल थे
जिन्हें 30 अप्रैल 2010 को जम्मू कश्मीर राज्य में सेना ने नियंत्रण रेखा के पास
आतंकवादियों से मुठभेड़ होने का दावा करते हुए मार गिराया था.
उस समय सेना ने कहा कि नियंत्रण रेखा के नज़दीक
माछिल सेक्टर के पास हुई मुठभेड़ में तीन पाकिस्तानी आतंकवादी मारे गए हैं.
बाद में मृतकों की असली पहचान सामने आई,
वे
सभी भारतीय नागरिक निकले. मृतक मोहम्मद शफी (19 साल), शहज़ाद अहमद (27
साल) और रियाज़ अहमद (21 साल) बारामुला ज़िले के नादिहाल इलाके के निवासी थे.
आरोप लगा कि सेना के लिए काम करने वाले बशीर
अहमद तीनों युवकों को नौकरी का लालच देकर गांव से ले गए और 50 हज़ार रुपये लेकर
उन्हें सेना के जवानों को सौंप दिया.
सेना के जवान उन्हें नियंत्रण रेखा के करीब
माछिल सेक्टर ले गए और उनकी हत्या कर दी. उनकी लाश को भी वहीं स्थानीय कब्रगाह में
दफना दिया गया.
मृतकों के रिश्तेदारों की शिकायत पर इस मुठभेड़
के मामले में स्थानीय पुलिस ने जुलाई 2010 में आठ सैन्यकर्मियों समेत 11 लोगों के
ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की थी.
पुलिस की पूछताछ के दौरान बशीर ने यह बात
स्वीकार की कि वह 26 अप्रैल को इन तीनों से मिला था और अगले दिन आने के लिए कहा
था. पुलिस ने उस ड्राइवर का भी बयान रिकॉर्ड किया जिसके वाहन से इन तीनों युवकों
को नादिहाल से कुपवाड़ा नियंत्रण रेखा के पास ले जाया गया था.
मुठभेड़ फर्ज़ी होने का मामला सामने आते ही
कश्मीर घाटी में तनाव फैल गया. करीब दो महीने तक जगह-जगह हिंसक प्रदर्शन हुए. इस
प्रदर्शन की अगुवाई हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी और मीरवाइज़
उमर फारूक़ द्वारा की गई.
इन नेताओं ने कश्मीर के विसैन्यीकरण (सेना
हटाने) की मांग की. प्रदर्शनकारियों ने भारत विरोधी नारे लगाए, पुलिस
पर पत्थरबाज़ी की और इमारतों व सैन्य वाहनों को आग लगा दी.
करीब दो महीने तक चली इस हिंसा को रोकने के लिए
कश्मीर में सेना और पुलिस को आंसू गैस के गोले, रबर बुलेट और
पैलेट गन का इस्तेमाल करना पड़ा. इस हिंसा में करीब 112 लोगों के मरने की बात कही
जाती है. इसमें 11 साल के एक बच्चे समेत कई नवयुवक थे.
हिंसक प्रदर्शनों के बाद जम्मू-कश्मीर के
तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने मामले
की विस्तृत जांच का भरोसा दिया. सेना ने भी माना कि प्राथमिक जांच में आरोपियों के
ख़िलाफ़ ठोस सबूत मिले और कोर्ट मार्शल की कार्रवाई शुरू की गई.
पुलिस ने इस मामले मे नौ सैन्यकर्मियों समेत 11
लोगों को आरोपी बनाकर सीजेएम सोपोर की अदालत मे जून 2010 को चालान पेश किया था,
लेकिन
श्रीनगर उच्च न्यायालय ने सेना के आग्रह पर आरोपी सैन्यकर्मियों के ख़िलाफ़ जनरल
कोर्ट मार्शल की कार्रवाई की अनुमति दी थी. कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया 23 दिसंबर
2013 को शुरू हुई जो सितंबर 2014 में पूरी हुई.
सितंबर 2015 में भारतीय सेना ने माछिल फर्ज़ी
मुठभेड़ मामले में दो अधिकारियों समेत छह सैनिकों के कोर्ट मार्शल का आदेश दिया
था. इसमें कर्नल डीके पठानिया, चार राजपूताना राइफल्स के कमांडिंग
अफसर मेजर उपिंदर और चार जवान शामिल थे. सैन्य अदालत ने इन सभी लोगों को आजीवन
कारावास की सज़ा भी सुनाई.
जम्मू कश्मीर पुलिस के आरोप पत्र में बशीर अहमद
लोन और अब्दुल हामिद बट नाम के दो नागरिकों का भी नाम था. दोनों पर बारामुला सत्र
अदालत में मुक़दमा चलाया जा रहा है.
कोर्ट मार्शल का फैसला आने के बाद जम्मू कश्मीर
के तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इसे ‘ऐतिहासिक क्षण’
बताया.
जम्मू कश्मीर में आतंकवाद फैलने के करीब ढाई दशकों में यह पहला फैसला था जब फर्ज़ी
मुठभेड़ पर सेना के जवानों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई थी.
बाद में आजीवन कारावास की सज़ा पाए पांच सैन्य
अधिकारियों ने सैन्य बल न्यायाधिकरण का दरवाज़ा खटखटाया. 27 जुलाई 2017 को सैन्य
बल न्यायाधिकरण ने कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देविंदर,
लांसनायक
लखमी और लांस नायक अरुण कुमार को सुनाई गई उम्रक़ैद की सज़ा निलंबित कर दी और
उन्हें ज़मानत दे दी.
सैन्य बल न्यायाधिकरण के इस फैसले के बाद
बारामुला के नादिहाल गांव में अजीब-सी ख़ामोशी छाई हुई है. पीड़ित परिवार और गांव
वाले इस फैसले के बाद ख़ुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.
मारे गए रियाज़ अहमद की मां नसीमा बताती हैं,
‘मेरा
बेटा मज़दूरी करता था. गांव का ही व्यक्ति बशीर अहमद उसे नौकरी दिलाने का झांसा
देकर ले गया था. ये सारे बच्चे सेना के लिए मज़दूरी करते थे. दो दिन इन्हें पैसा
भी मिला था और ये शाम को घर वापस लौट आते थे, लेकिन फिर तीसरे
दिन ये काम पर गए और वापस नहीं आए.’
नसीमा आगे कहती हैं, ‘मेरा बेटा
निर्दोष था. मुझे उसकी लाश 29 दिन बाद कब्र से निकालने के बाद मिली. उसकी दाढ़ी भी
नहीं आई थी. उसके चेहरे पर काला रंग लगाकर दाढ़ी बनाई गई थी ताकि वह आतंकी लगे. अब
जब सेना के सारे लोग छोड़ दिए जा रहे हैं तो बशीर भी जेल से छूट ही जाएगा. वह हमें
जेल से लगातार धमकी भेजता रहता है. हम बहुत मुसीबत में हैं. हमें सुरक्षा दिला दो.’
नसीमा, उनके पति मोहम्मद यूसुफ और उनके दो
बेटे गांव में ही मज़दूरी करके गुज़ारा करते हैं. उनका कहना था कि इस मुठभेड़ के
फर्ज़ी होने के बाद सरकार ने नौकरी देने का वादा किया था लेकिन आज भी वह फाइल अटकी
हुई है. हमारा गुज़ारा बहुत मुश्किल से होता है.
यूसुफ कहते हैं, ‘सरकार हमारे
जख़्मों पर लगातार नमक छिड़क रही है. हम भीख मांगने वाली स्थिति में हैं. हम न्याय
के लिए फरियाद ही कर सकते हैं. हमें न्याय चाहिए. सरकार कुछ भी फैसला करे हम अपनी
उम्मीद नहीं छोड़ सकते हैं. भले ही भीख मांगकर जीना पड़े. हम इस फैसले के ख़िलाफ़
बारामुला जाकर प्रदर्शन करते रहेंगे.’
कुछ ऐसा ही कहना मारे गए की पत्नी शहज़ाद अहमद
ज़बीना का भी है. उनका एक बेटा भी है, जो पांचवीं कक्षा में पढ़ाई करता है.
गांव में ज़्यादातर खेती-बाड़ी का काम होता है. ज़बीना मज़दूरी करके गुज़ारा कर
रही हैं.
वे बताती हैं, ‘मेरे पति ही काम
करते थे जिससे सबका गुज़ारा चलता है. सरकार ने नौकरी का वादा करके अभी तक नहीं
दिया है. इस देश में कितने क़ानून चलते हैं आप हमें समझाएं. जब अफज़ल गुरु को
फांसी हो सकती हैं तो इन अधिकारियों को फांसी क्यों नहीं दी जा रही है.’
नादिहाल के गांव वाले भी इन तीनों पीड़ित
परिवारों के साथ हैं. गांव के लोग अक्सर इन परिवारों की हरसंभव मदद करते रहते हैं.
मोहम्मद शफी के पिता अब्दुल रशीद कहते हैं,
‘अगर
इन सैनिकों को छोड़ दिया गया तो कोई भी भारतीय लोकतंत्र पर भरोसा नहीं कर पाएगा.
हम एक बच्चे को पाल-पोसकर इसलिए बड़ा करते हैं कि वह हमारे बुढ़ापे की लाठी बनेगा
लेकिन ये लोग बेवजह उसे मार देते हैं. आज अगर इनको सज़ा नहीं मिली तो कल वो हमें
मार देंगे या फिर दूसरों के बच्चों को मार देंगे और साफ बचकर निकल जाएंगे.’
वहीं, मारे गए रियाज़ अहमद के भाई एजाज़ ने
बताया, ‘बहुत सारे लोग कहते थे एक बार मीडिया और लोगों का ध्यान इस घटना से
हटेगा सेना अपने जवानों को छोड़ देगी लेकिन हमें न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा था.
हमें इन लोगों के छोड़े जाने की सूचना इंटरनेट से मिली. यह न्याय के नाम पर धोखा
है. एक बार सेना की ही अदालत उन्हें सज़ा देती है फिर उन्हें छोड़ भी दिया जाता
है. अभी जब हम प्रदर्शन करते हैं तो हर अधिकारी दूसरे अधिकारी के पास भेजकर हमारी
बात सुनने से इंकार करता है. लेकिन हम अपने भाई की हत्या के लिए तब तक प्रदर्शन
करते रहेंगे जब तक हमें न्याय नहीं मिल जाता है.’
सैन्य बल न्यायाधिकरण के फैसले पर नाराज़गी
ज़ाहिर करते हुए नादिहाल के ही रहने वाले अब्दुल लोन कहते हैं, ‘पूरी
दुनिया जानती हैं कि गांव के बच्चों को सेना के अधिकारियों ने प्रमोशन और पैसा
पाने के कारण मार दिया था. अब दोषी सैन्य अधिकारियों को बचाने की साज़िश चल रही
है. यह ठीक नहीं हैं.’
सैन्य बल न्यायाधिकरण द्वारा सुनाए गए फैसले
में दिए गए तर्क पर काफी लोगों ने नाराज़गी दिखाई है. न्यायाधिकरण ने अपने ज़मानत
आदेश में कहा है, ‘इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मारे
गए लोग आतंकवादी थे क्योंकि उन्होंने पठानी सूट पहन रखा था जो आतंकियों द्वारा
पहना जाता है.’
हालांकि यह अलग बात है कि कश्मीर में आम नागरिक
भी ज़्यादातर पठानी सूट पहना करते हैं. न्यायाधिकरण ने आगे कहा है, ‘इस
बात का कोई औचित्य नहीं समझ आया कि आम नागरिक एलओसी के इतने नज़दीक रात में क्या
कर रहे थे जबकि दोनों तरफ से गोलीबारी होती रहती थी.’
न्यायमूर्ति वीके शैली और लेफ्टिनेंट जनरल एसके
सिंह ने इस न्यायाधिकरण की अध्यक्षता की है. पांच सैनिकों को ज़मानत देने में
अदालत ने मृतकों के माता-पिता द्वारा पुलिस शिकायत दर्ज करने में देरी के पीछे
किसी मक़सद का आरोप लगाया.
पीठ ने कहा, ‘शिकायत देर से
केवल कुछ सहानुभूति पाने या अपने बच्चों की कथित हत्या के चलते मौद्रिक मुआवज़ा
पाने के लिए दायर की गई थी.’
न्यायाधिकरण ने यह भी सवाल उठाया है कि क्यों
तीनों नागरिक पठानी सूट में कमर पर गोला बारूद की बेल्ट बांधे हुए थे और हथियारों
से लैस थे.
न्यायाधिकरण ने अपने ज़मानत आदेश में निष्कर्ष
निकाला है, ‘यदि कोई व्यक्ति नागरिक है, तो
वह युद्धक पोशाक में निश्चित रूप से नहीं होगा, बहुत कम संभावना
है कि वह अपने साथ शस्त्र और गोला-बारूद लेगा.’
उत्तरी सेना कमांडर के रूप में सैनिकों को
उम्रक़ैद की सज़ा देने वाले लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हूडा कहते हैं, ‘मैं
सैन्य बल न्यायाधिकरण के फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता. मैं ऐसा कहने की
स्थिति में भी नहीं हूं. हालांकि यह मामला सैन्य न्यायालय में पांच साल से ज़्यादा
समय तक चला. इस दौरान सभी न्यायिक प्रक्रियाओं का पालन किया गया. इस पर सेना की
किसी तरह आलोचना करना न्यायोचित नहीं है.’
हालांकि इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के
मुताबिक, मामला लंबित होने के कारण एक अधिकारी गोपनीयता की शर्त पर कहते हैं
कि सैन्य बल न्यायाधिकरण का फैसला सेना की न्यायिक प्रक्रिया की ईमानदारी पर
आक्षेप लगाने जैसा है.
इस मामले से करीब से जुड़े रहे इन वरिष्ठ
अधिकारी का कहना है, ‘2010 में कोर्ट में मामला आने से लेकर 2015 में
फैसला आने तक कोर कमांडर और सेना कमांडरों सहित कई अधिकारी इससे जुड़े रहे हैं. ऐसा
लगता है कि सैन्य बल न्यायाधिकरण ये जताना चाहता है कि इन पांच सालों में सब कुछ
ग़लत इरादों से जान-बूझकर बिगाड़ा गया है. राजनीतिक दबाव या किसी अधिकारी के
दुर्भावनापूर्ण इरादों की बात कहना बिल्कुल ग़लत है.’
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, सैनिकों
पर चले मुक़दमे से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि किसी हत्या के लिए न्यूनतम सज़ा उम्रक़ैद
है, जिसे कम नहीं किया जा सकता. किसी क़ानूनी सलाह के विरुद्ध जाना किसी
कमांडर के लिए बहुत मुश्किल होता है.
सेना ने भी स्पष्ट किया कि माछिल फर्ज़ी
मुठभेड़ के आरोपियों की सज़ा निलंबित कर उन्हें ज़मानत देने में सैन्य अदालत की
कोई भूमिका नहीं है. रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता कर्नल राजेश कालिया ने कहा कि नई
दिल्ली के सैन्य बल न्यायाधिकरण (एएफटी) ने माछिल फर्ज़ी मुठभेड़ के आरोपियों के
ख़िलाफ़ सज़ा निलंबित कर उन्हें ज़मानत दे दी, जबकि सैन्य
अदालत की सज़ा निलंबित करने में कोई भूमिका नहीं है.
न्यायाधिकरण के इस फैसले के बाद जम्मू कश्मीर
के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया, ‘वे पठानी सूट
पहनते हैं, जो आतंकवादियों द्वारा पहना जाता है… क्या
अविश्वसनीय डरावना स्पष्टीकरण है. आप क्या पहनते हैं आपको इसके लिए मारा जा सकता
है.’
जम्मू कश्मीर के बारामुला के नादिहाल गांव में
रियाज़ अहमद के पिता मोहम्मद यूसुफ, मां नसीम और भाई फिरदौस. (फोटो: शोम
बसु/द वायर)
वहीं, कश्मीर विश्वविद्यालय के मास
कम्यूनिकेशन एंड रिसर्च सेंटर (एमसीआरसी) से जुड़ीं मुस्लिम जान का कहना है,
‘माछिल
मुठभेड़ में आया फैसला चौंकाने वाला है. अगर सिर्फ पठानी सूट पहनने से कोई आतंकी
हो जाता है तो घाटी में कितने लोग पठानी सूट पहनकर घूमते हैं. वो सारे लोग आतंकी
थोड़ी ही हैं.’
ग्रेटर कश्मीर अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक,
जम्मू
कश्मीर सरकार इस बात की जांच कर रही है कि सैन्य बल न्यायाधिकरण के फैसले को
चुनौती दी जा सकती है या नहीं. अख़बार के मुताबिक राज्य का कानून मंत्रालय इस बात
का परीक्षण कर रहा है कि वह इस फैसले को चुनौती दे सकता है या फिर पीड़ित परिवार.
इस मसले पर राज्य के कानून मंत्री अब्दुल हक़
ख़ान की अध्यक्षता में एक बैठक हुई है जिसमें एडवोकेट जनरल जहांगीर इक़बाल गनाई और
कानून सचिव अब्दुल माजिद भट ने हिस्सा लिया है.
वहीं, श्रीनगर में रहने वाले मानवाधिकार
कार्यकर्ता और वकील परवेज़ इमरोज़ कहते हैं, ‘माछिल मुठभेड़
पर सैन्य बल न्यायाधिकरण का फैसला जम्मू कश्मीर में मानवाधिकार हनन के दूसरे
हज़ारों मामलों के जैसा है, जिसमें अंत में आरोपी छूट जाते हैं.
ऐसे तमाम केस देखने के बाद मुझे न्यायाधिकरण के इस फैसले ने ज़्यादा नहीं चौंकाया.’
वे आगे कहते हैं, ‘हमारी राज्य
सरकार भी ऐसे मामलों में न्याय के लिए प्रयासरत नहीं दिखती है. ऐसी हत्याओं पर बनी
एमएल कौल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पिछले साल ही राज्य सरकार को सौंप दी थी, लेकिन
आज तक उसे सार्वजनिक नहीं किया गया है.’
इमरोज़ कहते हैं कि पिछले तीन दशकों में 70,000
के करीब हत्याएं, 8000 से ज़्यादा लोगों के गायब होने, व्यापक
यातना और यौन हिंसा के इतने मामले होने के बावजूद नागरिक अदालतों में सैन्य बलों
के ख़िलाफ़ लगभग कोई मुकदमा नहीं है.
श्रीनगर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार रियाज़
वानी कहते हैं, ‘पिछले तीन दशकों में ऐसा पहली बार हुआ जब
सैन्यकर्मियों को फर्ज़ी मुठभेड़ या मानवाधिकार हनन के मामले में सज़ा सुनाई गई थी,
लेकिन
अब जिस तरह का फैसला आया है उससे यह साफ संदेश जाता है कि सैन्यकर्मी यहां कुछ भी
करें. सरकार उनके पीछे खड़ी है.’
वानी कहते हैं, ‘ऐसे में कश्मीरी
लोग जो पहले से मुख्यधारा से अलगाव महसूस करते हैं उनमें यह भावना और भी बढ़
जाएगी. कश्मीरी लोगों को यह समझ में आ रहा है कि सेना यहां कुछ भी करें, किसी
को भी सज़ा नहीं मिलने वाली है. इससे कश्मीरियों की दूरी बढ़ेगी.’
रियाज़ वानी आगे कहते हैं, ‘माछिल
मामले में आजीवन कारावास की सज़ा का फैसला आने के बाद कश्मीर में फर्ज़ी मुठभेड़
में कमी आना शुरू हो गई थी. सेना के जवानों को भी लगने लगा था कि अगर वो कुछ भी
ग़लत करते हैं तो सरकार सख़्त है और उन पर कार्रवाई करेगी. लेकिन न्यायाधिकरण का
फैसला आने के बाद इसमें फिर से इज़ाफा हो सकता है. इस फैसले का सबसे बुरा प्रभाव
कश्मीर की जनता पर पड़ने वाला है. इससे उनमें गुस्से और अलगाव की भावना बढ़ जाएगी.’
गौरतलब है कि कश्मीर में माछिल मुठभेड़ से
मिलती-जुलती कई घटनाएं हुई हैं. इसमें से एक चर्चित मामला दक्षिणी कश्मीर के पथरीबल
का है.
दरअसल कश्मीर के छत्तीसिंहपुरा में 21 मार्च,
2000
को 35 सिखों की हत्या रात के घुप अंधेरे में की गई. इसके बाद 26 मार्च 2000 को
दक्षिणी कश्मीर के पथरीबल में सुरक्षा बलों ने पांच नौजवानों को एक मुठभेड़ में
मारने का दावा किया था. सुरक्षा बलों ने दावा किया था कि ये पांचों लोग विदेशी
आतंकी थे और छत्तीसिंहपुरा हत्याकांड के लिए ज़िम्मेदार थे.
इस पर स्थानीय लोगों का कहना था कि ये पांचों
नौजवान पास के गांवों के रहने वाले थे और सुरक्षा बलों ने उन्हें फर्ज़ी मुठभेड़
में मार डाला था. बाद में सीबीआई जांच में भी खुलासा हुआ कि मारे गए लोग आम नागरिक
थे.
इस मामले में सीबीआई ने राज्य पुलिस को
क्लीनचिट देते हुए सेना के पांच जवानों को फर्ज़ी मुठभेड़ का दोषी माना था.
बाद में सैन्य अदालत ने पथरीबल फर्ज़ी मुठभेड़
कांड की फाइल यह कहते हुए बंद कर दी है कि आरोपियों में से किसी के ख़िलाफ़
पुख़्ता सबूत नहीं मिले हैं.
(शोम बसु के सहयोग के साथ)
सोर्स : तीसरी जंग