भारतीय डाक सेवा क्या है ? इसका क्या महत्व है यह राष्ट्र सेवा और समाज से कैसे जुडी है इसका क्या राष्ट्रीय
महत्व है इसका विवरण निचे दिया गया है लेकिन वर्तमान में राष्ट्रिय महत्व की यह धरोहर मृत्यु शैय्या पर पहुचा दी गई है और इसका अंतिम श्रेय
मोदी सरकार को ही जाएगा
कमाल की बात यह है की मोदी सरकार के आते
आते यह सुविधा यानी एक गरीब आदमी जो केवल तीस पैसे के पोस्ट
कार्ड से अपने घर गाव तक संदेश पहुचा सकता था उसको खत्म कर दिया गया बहाना मिला मोबाइल फोन का
टेलीग्राम की हत्या भी इसी मोबाइल
फोन के नाम पर की गई
छोटे
मोटे व्यापारी जो वे पी के द्वारा
समान भेजते थे वह सेवा भी समाप्त कर
दी गई है वह भी सी ओ डी के नाम पर .
अब आप जाइए
सी ओ डी की सेवा लेने डाक खाने के किसी
भी कर्मचारी को शायद ही मालूम होगा
की सी ओ डी सेवा नाम की कोई चीज है इसके अलावा आपको कोई सेवा के लिए रजिस्टर ही नहीं करेगा
न तो आपको वी पी फॉर्म मिलेगा और न
ही सी ओ डी की सेवा इन्द्रप्रस्थ नई दिल्ली
२ , लोधी रोड ,
गोल डाक खाने तक में यह सुविधा नहीं है
अब सवाल यह है आखिर क्यों सरकारी
डाक सेवाओं की हत्या की जा रही है
?? कारण साफ़ है सरकार का
विध्वंशकारी चरित्र और भ्रष्ट निति
जिसके तहत केवल विदेशी और निजी
कम्पनियो को फायदा पहुचाया जा रहा है और ये कम्पनियो इन पार्टियो
को देती है बड़े बड़े चंदे
चलिए अब जान लेते है भारतीय डाक सेवा का इतिहास
और महत्वता ताकि सभी जान सके की भारतीय डाक सेवा मात्र एक
डाक सेवा नहीं बल्कि राष्ट्र को जोड़ने का सूत्र
है
कोई भी संस्थान डाकघर जितना आदमी की जिंदगी के
इतने करीब नहीं पहुंच सका है । डाकघर की पहुंच देश के कोने कोने तक है । एक वजह यह
भी है कि जिसके कारण सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को लोगों तक पहुंचने में होने
वाली कठिनाई की स्थिति में ये डाकघर जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल करते हैं । पहली
बार भारतीय डाकघर को राष्ट्रीय महत्व के एक अलग संगठन के रूप में स्वीकार किया गया
और उसे एक अक्टूबर 1854 को डाकघर महानिदेशक के सीधे नियंत्रण में सौंप
दिया गया ।
1766 में लार्ड क्लाइव ने देश में पहली डाक
व्यवस्था स्थापित की थी । इसके बाद 1774 में वारेन हेस्ंटिग्ज़ ने इस व्यवस्था
को और मजबूत किया । उन्होंने एक महा डाकपाल के अधीन कलकत्ता प्रधान डाकघर स्थापित
किया । मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी में क्रमशः 1786 और 1793
में डाक व्यवस्था शुरू की गई । 1837 में डाक अधिनियम लागू किया गया ताकि
तीनों प्रेसीडेन्सी में सभी डाक संगठनों को आपस में मिलाकर देशस्तर पर एक अखिल
भारतीय डाक सेवा बनाई जा सके । 1854 में डाकघर अधिनियम के जरिए एक अक्टूबर
1854 को मौजूदा प्रशासनिक आधार पर भारतीय डाक घर को पूरी तरह सुधारा गया
।
1854 में डाक और तार दोनों ही विभाग अस्तित्व में
आए। शुरू से ही दोनों विभाग जन कल्याण को ध्यान में रख कर चलाए गए । लाभ कमाना उद्देश्य
नहीं था । 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में सरकार ने फैसला
किया कि विभाग को अपने खर्चे निकाल लेने चाहिए। उतना ही काफी होगा । 20वीं
सदी में भी यही क्रम बना रहा । डाकघर और तार विभाग के क्रियाकलापों में एक साथ
विकास होता रहा। 1914 के प्रथम विश्व युध्द की शुरूआत में दोनों
विभागों को मिला दिया गया ।
सेवाओं का एकीकरण
भारतीय राज्यों के वित्तीय और राजनीतिक एकीकरण
के चलते यह आवश्यक और अपरिहार्य हो गया कि भारत सरकार भारतीय राज्यों की डाक
व्यवस्था को एक विस्तृत डाक व्यवस्था के अधीन लाए । ऐसे कई राज्य थे जिनके अपने
जिला और स्वतंत्र डाक संगठन थे और उनके अपने डाक टिकट चलते थे । इन राज्यों के
लैटर बाक्स हरे रंग में रंगे जाते थे ताकि वे भारतीय डाकघरों के लाल लैटर बाक्सों
से अलग नज़र आएं ।
1908 में भारत के 652 देशी राज्यों
में से 635 राज्यों ने भारतीय डाक घर में शामिल होना स्वीकार किया । केवल 15
राज्य बाहर रहे, जिनमें हैदराबाद, ग्वालियर,
जयपुर
और ट्रावनकोर प्रमुख हैं ।
1925 में डाक और तार विभाग का बड़े पैमाने पर
पुनर्गठन किया गया । विभाग की वित्तीय स्थिति का जायजा लेने के लिए उसके खातों को
दोबारा व्यवस्थित किया गया । उद्देश्य यह पता लगाना था कि विभाग करदाताओं पर कितना
बोझ डाल रहा है या सरकार का राजस्व कितना बढा रहा है और इस दिशा में विभाग की
चारों शाखाएं यानी डाक, तार, टेलीफोन और बेतार कितनी भूमिका निभा
रहे हैं ।
विस्तृत गतिविधियां
भारतीय डाक सेवा का क्षेत्र चिट्ठियां बांटने
और संचार का कारगर साधन बने रहने तक ही सीमित नहीं है । आपको सुनकर हैरानी हो सकती
है कि शुरूआती दिनों में डाकघर विभाग, डाक बंगलों और सरायों का रख रखाव भी
करता था। 1830 से लगभग तीस सालों से भी ज्यादा तक यह विभाग
यात्रियों के लिए सड़क यात्रा को भी सुविधाजनक बनाते थे । कोई भी यात्री एक निश्चित
राशि के अग्रिम पर पालकी, नाव, घोड़े, घोड़ागाड़ी
और डाक ले जाने वाली गाड़ी में अपनी जगह आरक्षित करवा सकता था । वह रास्ते में पड़ने
वाली डाक चौकियों में आराम भी कर सकता था । यही डाक चौकियां बाद में डाक बंगला
कहलाईं।
19वीं सदी के आखिर में प्लेग की महामारी फैलने के
दौरान, डाकघरों को कुनैन की गोलियों के पैकेट बेचने का काम भी सौंपा गया था
।
भारत संयुक्त परिवारों और छोटी आमदनी वाले
लोगों का देश है, जहां लोगों को छोटी रकमों की सूरत में लाखों
रूपए भेजने पड़ते हैं । रूपयों के लेन-देन का काम जिला मुख्यालयों में स्थित 321सरकारी
खजानों द्वारा किया जाता था । 1880 में मनी आर्डर के द्वारा छोटी रकमें
भेजने का काम 5090 डाकघर वाली विस्तृत डाक एजेंसी को दिया गया और
इस तरह जिला मुख्यालयों तक जाने और प्राप्तकर्ता द्वारा पहचान साबित करने की
कठिनाइयां कम हो गईं ।
1884 में उच्च पदों पर आसीन कर्मचारियों को छोड़कर
देसी डाक कर्मचारियों के लिए डाक जीवन बीमा योजना शुरू की गई, क्योंकि
भारत में काम करने वाली बीमा कंपनियां आम भारतीय निवासियों का बीमा करने से कतराती
थीं ।
स्वतंत्रता संग्राम
उन कठिन दिनों में देश के साथ-साथ डाक विभाग भी
इसके असर से अछूता नहीं रहा । 1857 के बाद विभाग ने आगजनी और लूटमार का
दौर देखा । एक उपडाकपाल और एक ओवरसियर की हत्या कर दी गई, एक रनर को घायल
कर दिया गया और बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तर पश्चिमी
सीमांत राज्यों के कई डाकघरों को लूट लिया गया । उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्यों और
अवध में सभी संचार लाइनों को बंद कर दिया गया था और हिंसा खत्म हो जाने के बाद भी
साल भर तक कई डाकघरों को दोबारा नहीं खोला जा सका ।
लगभग पांच माह तक चलने वाली 1920 की
डाक हड़तालों ने देश की डाक सेवा को पूरी तरह ठप्प कर दिया था । 1942 के
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई डाकघरों और लैटर बक्सों को जला दिया गया था,और
डाक का आना-जाना बड़ी मुश्किल से हो पाता था। इसके कारण कई सेक्टरों में डाक सेवाएं
गड़बड़ा गई थीं ।
मील के पत्थर
पिछले कई सालों में डाक वितरण के क्षेत्र में
बहुत विकास हुआ है और यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से स्पीड पोस्ट और स्पीड
पोस्ट से ई-पोस्ट के युग में पहुंच गया है । पोस्ट कार्ड 1879
में चलाया गया जबकि वैल्यू पेएबल पार्सल (वीपीपी), पार्सल और बीमा
पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930
में शुरू हुआ । तेज डाक वितरण के लिए पोस्टल इंडेक्स नंबर (पिनकोड) 1972
में शुरू हुआ । तेजी से बदलते परिदृश्य और हालात को मद्दे नजर रखते हुए 1985
में डाक और दूरसंचार विभाग को अलग-अलग कर दिया गया । समय की बदलती आवश्यकताओं को
ध्यान में रखकर 1986 में स्पीड पोस्ट शुरू हुई ओर 1994
में मेट्रो#राजधानी#व्यापार चैनल,
ईपीएस
और वीसैट के माध्यम से मनी आर्डर भेजा जाना शुरू
पिछले कई सालों में डाक वितरण के क्षेत्र में
बहुत विकास हुआ है और यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से स्पीड पोस्ट और स्पीड
पोस्ट से ई-पोस्ट के युग में पहुंच गया है । पोस्ट कार्ड 1879
में चलाया गया जबकि वैल्यू पेएबल पार्सल (वीपीपी), पार्सल और बीमा
पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930
में शुरू हुआ । तेज डाक वितरण के लिए पोस्टल इंडेक्स नंबर (पिनकोड) 1972
में शुरू हुआ । तेजी से बदलते परिदृश्य और हालात को मद्दे नजर रखते हुए 1985
में डाक और दूरसंचार विभाग को अलग-अलग कर दिया गया । समय की बदलती आवश्यकताओं को
ध्यान में रखकर 1986 में स्पीड पोस्ट शुरू हुई ओर 1994
में मेट्रो#राजधानी#व्यापार चैनल,
ईपीएस
और वीसैट के माध्यम से मनी आर्डर भेजा जाना शुरू किया गया ।
डाकिया
हरेक पारंपरिक समुदाय के लोक साहित्य में
डाकिये का स्थान काफी ऊंचा है । भारत में प्रायः सभी क्षेत्रीय भाषाओं में डाकिए
की कहानियां और कविताएं मिल जाएंगी।
पुराने जमाने में हरेक डाकिए को ढोल बजाने वाला
मिलता था जो जंगली रास्तों से गुजरते समय डाकिए की सहायता करता था । रात घिरने के
बाद खतरनाक रास्तों से गुजरते समय डाकिए के साथ दो मशालची और दो तीरंदाज भी चलते
थे। ऐसे कई किस्से मिलते हैं जिनमें डाकिए को शेर उठा ले गया या वह उफनती नदी में
डूब गया या उसे जहरीले सांप ने काट लिया या वह चटटान फिसलने या मिटटी गिरने से दब
गया या चोरों ने उसकी हत्या कर दी । भारत सरकार के जन सूचना निदेशक ने 1923
में संसद को बताया था कि वर्ष 1921-22 के दौरान राहजनी करने वाले चोरों
द्वारा डाक लूटने की 57 घटनाएं हुई थीं, जबकि इसके पिछले
साल ऐसे 36 मामले हुए थे । 457 मामलों में से सात मामलों में लोगों
की जानें गई थीं, 13 मामलों में डाकिये घायल हो गए थे ।
राष्ट्र को जोड़ने का मजबूत साधन
डाकघर ने राष्ट्र को परस्पर जोड़ने, वाणिज्य
के विकास में सहयोग करने और विचार व सूचना के अबाध प्रवाह में मदद की है । डाक
वितरण में पैदल से घोड़ा गाड़ी द्वारा, फिर रेल मार्ग से, वाहनों
से लेकर हवाई जहाज तक विकास हुआ है । पिछले कई सालों में डाक लाने ले जाने के
तरीकों और परिमाण में बदलाव आया है । आज डाक यंत्रीकरण और स्वचालन पर जोर दिया जा
रहा है, जिन्हें उत्पादकता और गुणवत्ता सुधारने तथा उत्तम डाक सेवा प्रदान
करने के लिए अपना लिया गया है ।
डाक सेवाओं के सामाजिक और आर्थिक कर्तव्य हैं
जो कारोबारी नजरिए से बिलकुल अलग हैं । विशेषतः विकासशील देशों में ऐसा ही है ।
भरोसेमंद डाक व्यवस्था आधुनिक सूचना व वितरण ढांचे का अहम अंग है । इसके अलावा वह
आर्थिक विकास और गरीबी कम करने में एक महत्वपूर्ण साधन है ।
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