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Thursday 22 March 2018

SC/ST एक्ट में परिवर्तन कही षड्यंत्र तो नहीं ? महिला उत्पीडन कानून भी खत्म हो


 SC/ST एक्ट में परिवर्तन कही षड्यंत्र तो नहीं ? महिला उत्पीडन कानून भी खत्म हो
देश में अपराधो को कम करने के लिए  सभी लोग कड़े   से कड़े कानून बनाने की बात करते हैं , महिलाओं पर अत्याचार ,बलात्कार रोकने के लिए निर्भया  कानून बना दिया गया तो एस सी और एस टी   उत्पीडन कानून को क्यों  न कडा  किया जाए जब की  गुजरात के उना जैसी  घटनाएं  देश में रोज होती है  कही न कही देश में किसी न किसी  एस सी / एस टी  पर जुल्म होता है जाति  सूचक गाली  तो आम बात है  और उनकी हत्याए  मार पीठ  नियमित  कर्म काण्ड  बन गया है सवर्णों का . हालात यह है की मोदी  काल में  दलित उत्पीडन  के मामलो में ६०० %  से जयादा  वृद्धि  हुई है तो फिर ऐसी  क्या बात है की दलित  उत्पीडन से जुड़े कानून को एक दम कमजोर कर दिया है ?? वह भी यह कह  कर की इसका दुरूपयोग  हो रहा है . जब की ऐसा न के बराबर है .अगर ऐसा है तो हम महिला   कानून को क्यों नहीं खत्म करते ?? जबकि सवर्ण महिलाए  तो इस कानून का जम कर दुरपयोग  करती है ??

जब की दलित तो समाजिक , आर्थिक और शेक्षिक  रूप से काफी पिछड़े  है और इनके पास सिर्फ यह कानून ही एक सहारा था जिसके जरिये वो अपनी लड़ाई   लड़ सकते थे और अब इसको भी छीन लिया गया .
आइये इस कानून की उप्योगियता को इस उधाह्र्ण से समझते ही


1.एक गरीब दलित अपनी फरियाद लेकर तहसील जाता है और वँहा जग्गा ठाकुर नाम का अधिकारी मिलता है, उसे जग्गा ठाकुर फरियाद सुनकर उसे उल्टा एक थप्पड़ मारकर यह कहता है की भाग साले चमार/भँगी के इन्हा से, उसके बाद जब पुलिस में शिकायत होगी तब पुलिस जग्गा ठाकुर को गिरफ्तार करने से पहले जग्गा ठाकुर के अधिकारी जो की पक्का आईएएस, आईपीएस की रैंक का होगा से यह परमिशन लेगी की जग्गा को गिरफ्तार करे या नहीं। अब अगर उच्च अधिकारी भी ठाकुर, श्रीवास्तव, शर्मा, अग्रवाल होगा तो समझ जाए की उस गरीब दलित को एक थप्पड़ और मार दिया जाता तो भी कुछ नहीं होगा।



2.दूसरी व्यवस्था यह की गयी है की जग्गा ठाकुर दलित को सार्वजनिक स्थान पर थप्पड़ बजाता है, जातिसूचक शब्द कहे जाते है, खूब पिटाई की जाती है तो भी भी एफआईआर दर्ज होने के बाद पहले डिप्टी एसपी जांच करेगा, उसके बाद ही केस आगे बढ़ पायेगा। अब डिप्टी एसपी की मानसिकता पर यह निर्भर करेगा की केस दर्ज होना चाहिए या नहीं।

3.तीसरी व्यवस्था यह की गयी की जग्गा ठाकुर दलित को थप्पड़ व गालिया देने के बाद न्यायलय में जाकर अग्रिम जमानत ले सकता है, जिसके बाद आराम से बाहर घूमेगा व जांच को प्रभावित कर सकता है।

अत: अब एससी एसटी एक्ट का कोई औचित्य नहीं रहा ऐ।  चलो मान लिया की दुरूपयोग हो रहा था, लेकिन इसका यह मतलब नही की एक्ट को एक तरह से निष्प्रभावी ही कर दिया जाए।

 इसलिए दलितों को अब समझ लेंना चाहिए की पूजा करने या व्रत रखने के बाद भी हजारो सालो से कोई भगवान बचाने नही आया है आपको अपनी सुरक्षा स्वयं करनी पड़ेगी। इसलिए अब मन्दिर में घण्टा वजाने की जगह, शोषण करने वाले के सर पर घण्टा बजाने का जज्बा लाइये।  तभी एट्रोसिटी कम होगी। नही तो "ओ साले चमार के, ओ साले भँगी के" सुनते रहे।

डाक सेवाओं की हत्या भारतीय डाक सेवा का क्रियाकर्म जल्द करेगी मोदी सरकार


भारतीय डाक सेवा क्या है ?  इसका क्या महत्व है यह राष्ट्र सेवा  और समाज से कैसे जुडी है इसका क्या राष्ट्रीय महत्व है  इसका विवरण  निचे दिया गया है  लेकिन वर्तमान में  राष्ट्रिय महत्व की  यह धरोहर मृत्यु शैय्या पर पहुचा  दी गई है और इसका अंतिम  श्रेय  मोदी सरकार को ही जाएगा

कमाल की बात यह है की मोदी सरकार के आते आते  यह सुविधा  यानी एक गरीब आदमी जो केवल तीस पैसे के पोस्ट कार्ड से अपने घर गाव  तक संदेश  पहुचा सकता था उसको खत्म कर दिया गया  बहाना मिला मोबाइल  फोन  का टेलीग्राम  की हत्या भी  इसी मोबाइल  फोन के नाम  पर की गई
छोटे  मोटे  व्यापारी जो वे पी के द्वारा समान भेजते थे वह सेवा भी समाप्त  कर दी  गई है   वह भी सी ओ डी के नाम पर .

अब आप जाइए  सी ओ डी की सेवा लेने  डाक  खाने के किसी  भी कर्मचारी  को शायद ही मालूम होगा की सी ओ डी  सेवा नाम की कोई चीज है  इसके अलावा आपको कोई सेवा  के लिए रजिस्टर  ही नहीं करेगा  न तो आपको वी पी फॉर्म मिलेगा  और न ही सी ओ डी की सेवा  इन्द्रप्रस्थ   नई दिल्ली    , लोधी रोड   ,  गोल  डाक खाने  तक में यह सुविधा  नहीं है


अब सवाल यह है आखिर क्यों  सरकारी  डाक सेवाओं  की हत्या की जा रही है ??  कारण साफ़ है सरकार  का  विध्वंशकारी चरित्र  और भ्रष्ट निति जिसके तहत केवल विदेशी और निजी  कम्पनियो  को फायदा पहुचाया  जा रहा है और ये कम्पनियो  इन पार्टियो  को देती है बड़े बड़े  चंदे

चलिए अब जान लेते है भारतीय डाक सेवा का इतिहास  और महत्वता  ताकि सभी जान सके की भारतीय डाक सेवा मात्र एक डाक सेवा नहीं बल्कि राष्ट्र को जोड़ने का सूत्र  है

कोई भी संस्थान डाकघर जितना आदमी की जिंदगी के इतने करीब नहीं पहुंच सका है । डाकघर की पहुंच देश के कोने कोने तक है । एक वजह यह भी है कि जिसके कारण सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को लोगों तक पहुंचने में होने वाली कठिनाई की स्थिति में ये डाकघर जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल करते हैं । पहली बार भारतीय डाकघर को राष्ट्रीय महत्व के एक अलग संगठन के रूप में स्वीकार किया गया और उसे एक अक्टूबर 1854 को डाकघर महानिदेशक के सीधे नियंत्रण में सौंप दिया गया ।

1766 में लार्ड क्लाइव ने देश में पहली डाक व्यवस्था स्थापित की थी । इसके बाद 1774 में वारेन हेस्ंटिग्ज़ ने इस व्यवस्था को और मजबूत किया । उन्होंने एक महा डाकपाल के अधीन कलकत्ता प्रधान डाकघर स्थापित किया । मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी में क्रमशः 1786 और 1793 में डाक व्यवस्था शुरू की गई । 1837 में डाक अधिनियम लागू किया गया ताकि तीनों प्रेसीडेन्सी में सभी डाक संगठनों को आपस में मिलाकर देशस्तर पर एक अखिल भारतीय डाक सेवा बनाई जा सके । 1854 में डाकघर अधिनियम के जरिए एक अक्टूबर 1854 को मौजूदा प्रशासनिक आधार पर भारतीय डाक घर को पूरी तरह सुधारा गया ।

1854 में डाक और तार दोनों ही विभाग अस्तित्व में आए। शुरू से ही दोनों विभाग जन कल्याण को ध्यान में रख कर चलाए गए । लाभ कमाना उद्देश्य नहीं था । 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में सरकार ने फैसला किया कि विभाग को अपने खर्चे निकाल लेने चाहिए। उतना ही काफी होगा । 20वीं सदी में भी यही क्रम बना रहा । डाकघर और तार विभाग के क्रियाकलापों में एक साथ विकास होता रहा। 1914 के प्रथम विश्व युध्द की शुरूआत में दोनों विभागों को मिला दिया गया ।

सेवाओं का एकीकरण
भारतीय राज्यों के वित्तीय और राजनीतिक एकीकरण के चलते यह आवश्यक और अपरिहार्य हो गया कि भारत सरकार भारतीय राज्यों की डाक व्यवस्था को एक विस्तृत डाक व्यवस्था के अधीन लाए । ऐसे कई राज्य थे जिनके अपने जिला और स्वतंत्र डाक संगठन थे और उनके अपने डाक टिकट चलते थे । इन राज्यों के लैटर बाक्स हरे रंग में रंगे जाते थे ताकि वे भारतीय डाकघरों के लाल लैटर बाक्सों से अलग नज़र आएं ।

1908 में भारत के 652 देशी राज्यों में से 635 राज्यों ने भारतीय डाक घर में शामिल होना स्वीकार किया । केवल 15 राज्य बाहर रहे, जिनमें हैदराबाद, ग्वालियर, जयपुर और ट्रावनकोर प्रमुख हैं ।

1925 में डाक और तार विभाग का बड़े पैमाने पर पुनर्गठन किया गया । विभाग की वित्तीय स्थिति का जायजा लेने के लिए उसके खातों को दोबारा व्यवस्थित किया गया । उद्देश्य यह पता लगाना था कि विभाग करदाताओं पर कितना बोझ डाल रहा है या सरकार का राजस्व कितना बढा रहा है और इस दिशा में विभाग की चारों शाखाएं यानी डाक, तार, टेलीफोन और बेतार कितनी भूमिका निभा रहे हैं ।

विस्तृत गतिविधियां
भारतीय डाक सेवा का क्षेत्र चिट्ठियां बांटने और संचार का कारगर साधन बने रहने तक ही सीमित नहीं है । आपको सुनकर हैरानी हो सकती है कि शुरूआती दिनों में डाकघर विभाग, डाक बंगलों और सरायों का रख रखाव भी करता था। 1830 से लगभग तीस सालों से भी ज्यादा तक यह विभाग यात्रियों के लिए सड़क यात्रा को भी सुविधाजनक बनाते थे । कोई भी यात्री एक निश्चित राशि के अग्रिम पर पालकी, नाव, घोड़े, घोड़ागाड़ी और डाक ले जाने वाली गाड़ी में अपनी जगह आरक्षित करवा सकता था । वह रास्ते में पड़ने वाली डाक चौकियों में आराम भी कर सकता था । यही डाक चौकियां बाद में डाक बंगला कहलाईं।

19वीं सदी के आखिर में प्लेग की महामारी फैलने के दौरान, डाकघरों को कुनैन की गोलियों के पैकेट बेचने का काम भी सौंपा गया था ।

भारत संयुक्त परिवारों और छोटी आमदनी वाले लोगों का देश है, जहां लोगों को छोटी रकमों की सूरत में लाखों रूपए भेजने पड़ते हैं । रूपयों के लेन-देन का काम जिला मुख्यालयों में स्थित 321सरकारी खजानों द्वारा किया जाता था । 1880 में मनी आर्डर के द्वारा छोटी रकमें भेजने का काम 5090 डाकघर वाली विस्तृत डाक एजेंसी को दिया गया और इस तरह जिला मुख्यालयों तक जाने और प्राप्तकर्ता द्वारा पहचान साबित करने की कठिनाइयां कम हो गईं ।
1884 में उच्च पदों पर आसीन कर्मचारियों को छोड़कर देसी डाक कर्मचारियों के लिए डाक जीवन बीमा योजना शुरू की गई, क्योंकि भारत में काम करने वाली बीमा कंपनियां आम भारतीय निवासियों का बीमा करने से कतराती थीं ।

स्वतंत्रता संग्राम
उन कठिन दिनों में देश के साथ-साथ डाक विभाग भी इसके असर से अछूता नहीं रहा । 1857 के बाद विभाग ने आगजनी और लूटमार का दौर देखा । एक उपडाकपाल और एक ओवरसियर की हत्या कर दी गई, एक रनर को घायल कर दिया गया और बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्यों के कई डाकघरों को लूट लिया गया । उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्यों और अवध में सभी संचार लाइनों को बंद कर दिया गया था और हिंसा खत्म हो जाने के बाद भी साल भर तक कई डाकघरों को दोबारा नहीं खोला जा सका ।

लगभग पांच माह तक चलने वाली 1920 की डाक हड़तालों ने देश की डाक सेवा को पूरी तरह ठप्प कर दिया था । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई डाकघरों और लैटर बक्सों को जला दिया गया था,और डाक का आना-जाना बड़ी मुश्किल से हो पाता था। इसके कारण कई सेक्टरों में डाक सेवाएं गड़बड़ा गई थीं ।
मील के पत्थर

पिछले कई सालों में डाक वितरण के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है और यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से स्पीड पोस्ट और स्पीड पोस्ट से ई-पोस्ट के युग में पहुंच गया है । पोस्ट कार्ड 1879 में चलाया गया जबकि वैल्यू पेएबल पार्सल (वीपीपी), पार्सल और बीमा पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930 में शुरू हुआ । तेज डाक वितरण के लिए पोस्टल इंडेक्स नंबर (पिनकोड) 1972 में शुरू हुआ । तेजी से बदलते परिदृश्य और हालात को मद्दे नजर रखते हुए 1985 में डाक और दूरसंचार विभाग को अलग-अलग कर दिया गया । समय की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 1986 में स्पीड पोस्ट शुरू हुई ओर 1994 में मेट्रो#राजधानी#व्यापार चैनल, ईपीएस और वीसैट के माध्यम से मनी आर्डर भेजा जाना शुरू  

पिछले कई सालों में डाक वितरण के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है और यह डाकिए द्वारा चिट्ठी बांटने से स्पीड पोस्ट और स्पीड पोस्ट से ई-पोस्ट के युग में पहुंच गया है । पोस्ट कार्ड 1879 में चलाया गया जबकि वैल्यू पेएबल पार्सल (वीपीपी), पार्सल और बीमा पार्सल 1977 में शुरू किए गए। भारतीय पोस्टल आर्डर 1930 में शुरू हुआ । तेज डाक वितरण के लिए पोस्टल इंडेक्स नंबर (पिनकोड) 1972 में शुरू हुआ । तेजी से बदलते परिदृश्य और हालात को मद्दे नजर रखते हुए 1985 में डाक और दूरसंचार विभाग को अलग-अलग कर दिया गया । समय की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 1986 में स्पीड पोस्ट शुरू हुई ओर 1994 में मेट्रो#राजधानी#व्यापार चैनल, ईपीएस और वीसैट के माध्यम से मनी आर्डर भेजा जाना शुरू किया गया ।
डाकिया
हरेक पारंपरिक समुदाय के लोक साहित्य में डाकिये का स्थान काफी ऊंचा है । भारत में प्रायः सभी क्षेत्रीय भाषाओं में डाकिए की कहानियां और कविताएं मिल जाएंगी।

पुराने जमाने में हरेक डाकिए को ढोल बजाने वाला मिलता था जो जंगली रास्तों से गुजरते समय डाकिए की सहायता करता था । रात घिरने के बाद खतरनाक रास्तों से गुजरते समय डाकिए के साथ दो मशालची और दो तीरंदाज भी चलते थे। ऐसे कई किस्से मिलते हैं जिनमें डाकिए को शेर उठा ले गया या वह उफनती नदी में डूब गया या उसे जहरीले सांप ने काट लिया या वह चटटान फिसलने या मिटटी गिरने से दब गया या चोरों ने उसकी हत्या कर दी । भारत सरकार के जन सूचना निदेशक ने 1923 में संसद को बताया था कि वर्ष 1921-22 के दौरान राहजनी करने वाले चोरों द्वारा डाक लूटने की 57 घटनाएं हुई थीं, जबकि इसके पिछले साल ऐसे 36 मामले हुए थे । 457 मामलों में से सात मामलों में लोगों की जानें गई थीं, 13 मामलों में डाकिये घायल हो गए थे ।

राष्ट्र को जोड़ने का मजबूत साधन
डाकघर ने राष्ट्र को परस्पर जोड़ने, वाणिज्य के विकास में सहयोग करने और विचार व सूचना के अबाध प्रवाह में मदद की है । डाक वितरण में पैदल से घोड़ा गाड़ी द्वारा, फिर रेल मार्ग से, वाहनों से लेकर हवाई जहाज तक विकास हुआ है । पिछले कई सालों में डाक लाने ले जाने के तरीकों और परिमाण में बदलाव आया है । आज डाक यंत्रीकरण और स्वचालन पर जोर दिया जा रहा है, जिन्हें उत्पादकता और गुणवत्ता सुधारने तथा उत्तम डाक सेवा प्रदान करने के लिए अपना लिया गया है ।

डाक सेवाओं के सामाजिक और आर्थिक कर्तव्य हैं जो कारोबारी नजरिए से बिलकुल अलग हैं । विशेषतः विकासशील देशों में ऐसा ही है । भरोसेमंद डाक व्यवस्था आधुनिक सूचना व वितरण ढांचे का अहम अंग है । इसके अलावा वह आर्थिक विकास और गरीबी कम करने में एक महत्वपूर्ण साधन है ।

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