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Friday 24 November 2017

परशुराम / पुष्यमित्र शुंग विदेशो से आये ब्राह्मण इस देश पर कब्जा कर लिया जानिये कैसे


सम्राट अशोक ने अपने राज्य में पशु हत्या पर पाबन्दी लगा दी थी, जिसके कारन ब्राह्मणों की रोजगार योजना बंद को गई थी, उसके बाद सम्राट अशोक ने तीसरी धम्म संगती में ६०,००० ब्राह्मणों को बुद्ध धम्म से निकाल बाहर किया था, तो ब्राह्मण १४० सालों तक गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रहे थे, उस वक़्त ब्राह्मण आर्थिक दुर्बल घटक बनके जी रहे थे, ब्राह्मणों का वर्चस्व और उनकी परंपरा खत्म हो गई थी, उसे वापस लाने के लिए ब्राह्मणों के पास बौद्ध धम्म के राज्य के विरोध में युद्ध करना यही एक मात्र विकल्प रह गया था, ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस लाने के लिए

 अखण्ड भारत में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में अखण्ड भारत के निर्माता चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक महान के पौत्र , मौर्य वंश के 10 वें न्यायप्रिय सम्राट राजा बृहद्रथ मौर्य  की हत्या धोखे से उन्हीं के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में ईसा.पूर्व. १८५ में रक्त रंजिस साजिश के तहत प्रतिक्रांति की और खुद को मगध का राजा घोषित कर लिया था ।
और इस प्रकार ब्राह्मणशाही का विजय हुआ।

 उसने राजा बनने पर पाटलिपुत्र से श्यालकोट तक सभी बौद्ध विहारों को ध्वस्त करवा दिया था तथा अनेक बौद्ध भिक्षुओ का खुलेआम कत्लेआम किया था। पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों व यहाँ की जनता पर बहुत अत्याचार करता था और ताकत के बल पर उनसे ब्राह्मणों द्वारा रचित मनुस्मृति अनुसार वर्ण (हिन्दू) धर्म कबूल करवाता था।




उत्तर-पश्चिम क्षेत्र पर यूनानी राजा मिलिंद का अधिकार था। राजा मिलिंद बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। जैसे ही राजा मिलिंद को पता चला कि पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों पर अत्याचार कर रहा है तो उसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। पाटलिपुत्र की जनता ने भी पुष्यमित्र शुंग के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर दिया, इसके बाद पुष्यमित्र शुंग जान बचाकर भागा और उज्जैनी में जैन धर्म के अनुयायियों की शरण ली।

जैसे ही इस घटना के बारे में कलिंग के राजा खारवेल को पता चला तो उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित करके पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। पाटलिपुत्र से यूनानी राजा मिलिंद को उत्तर पश्चिम की ओर धकेल दिया।

 इसके बाद ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग राम ने अपने समर्थको के साथ मिलकर पाटलिपुत्र और श्यालकोट के मध्य क्षेत्र पर अधिकार किया और अपनी राजधानी साकेत को बनाया। पुष्यमित्र शुंग ने इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया। अयोध्या अर्थात-बिना युद्ध के बनायीं गयी राजधानी...

 राजधानी बनाने के बाद पुष्यमित्र शुंग राम ने घोषणा की कि जो भी व्यक्ति, बौद्ध भिक्षुओं का सर (सिर) काट कर लायेगा, उसे 100 सोने की मुद्राएँ इनाम में दी जायेंगी। इस तरह सोने के सिक्कों के लालच में पूरे देश में बौद्ध भिक्षुओ  का कत्लेआम हुआ। राजधानी में बौद्ध भिक्षुओ के सर आने लगे । इसके बाद कुछ चालक व्यक्ति अपने लाये  सर को चुरा लेते थे और उसी सर को दुबारा राजा को दिखाकर स्वर्ण मुद्राए ले लेते थे। राजा को पता चला कि लोग ऐसा धोखा भी कर रहे है तो राजा ने एक बड़ा पत्थर रखवाया और राजा, बौद्ध भिक्षु का सर देखकर उस पत्थर पर मरवाकर उसका चेहरा बिगाड़ देता था । इसके बाद बौद्ध भिक्षु के सर को घाघरा नदी में फेंकवा दता था।

 राजधानी अयोध्या में बौद्ध भिक्षुओ  के इतने सर आ गये कि कटे हुये सरों से युक्त नदी का नाम सरयुक्त अर्थात वर्तमान में अपभ्रंश "सरयू" हो गया।


 इसी "सरयू" नदी के तट पर पुष्यमित्र शुंग के राजकवि वाल्मीकि ने "रामायण" लिखी थी। जिसमें राम के रूप में पुष्यमित्र शुंग और "रावण" के रूप में मौर्य सम्राटों का वर्णन करते हुए उसकी राजधानी अयोध्या का गुणगान किया थ

Sunday 19 November 2017

झांसी की कलंक गाथा , रियल स्टोरी ऑफ़ रानी लक्ष्मी बाई : महेंद्र यादव


बाल विवाह और बालिका पर हुए अत्याचार को महिमामंडित करने वाली इस कविता पर पाबंदी लगनी चाहिए।
7-8 साल की बच्ची की 40-50 साल के बूढ़े राजा के साथ हुई शादी को वीरता और वैभव की शादी बताया गया।
इस अनमेल जोड़ी में चित्रा-अर्जुन, शिव-भवानी के कौन से गुण परख लिए थे सुभद्रा कुमारी चौहान ने....
ये देखिए.....क्या ये कविता वीर रस की लगती है या झांसी की कलंक गाथा...

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

झांसी की कथित रियासत केवल नाम की रियासत थी। बहुत सीमित अधिकार अंग्रेजों ने दिए थे। निकम्मे राजा गंगाधर राव को ऐशोआराम की सुविधाएं और जनता से कर वसूलने का अधिकार ही मिला था।
1835 में 19 नवंबर को जन्मी लक्ष्मी बाई से 1842 में शादी की थी। जब डलहौजी ने ये रियासत भी हड़पने की कोशिश की तो ही जंग की नौबत आई। इस जंग में लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई ने अंग्रेज सेना से जमकर टक्कर ली और वीरगति को प्राप्त हुई। लक्ष्मी बाई छिपकर नेपाल भाग गई और लौटकर नहीं आई।
गोद लिया पुत्र दामोदर अंग्रेजों की पेंशन पर जिंदगी भर पलता रहा। 1908 में मरा।
सुभद्रा कुमारी चौहान की एक कविता की बदौलत अंग्रेजों की पिट्ठू रही लक्ष्मी बाई का महिमामंडन वीरांगना और देशभक्त के रूप में फालतू में हो गया।


1857 के स्वाधीनता संग्राम की वीरांगना लक्ष्मीबाई नहीं, बल्कि झलकारी बाई थी, जिसका जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के भोजला गाँव में हुआ था। उनके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था । उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से हुआ था ।

पहली बार रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं ।
अप्रैल 1858 के संग्राम मे लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से अपनी सेना का कथित नेतृत्व किया और अंग्रेज़ो द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। मुखबिरी के कारण किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिये जाने के बाद झलकारी बाई ने रानी को किला छोड़कर भागने की सलाह दी।

झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया था लेकिन मातम मनाने के स्थान पर झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना के साथ किले के बाहर निकल कर ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज़ से लड़ी और इसी युद्ध मे शहीद हो गईं । लक्ष्मीबाई चुपके से नेपाल भाग गई और वहां 1915 तक जीवित रही।

रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधकर अंग्रेजों से लड़ने के लिए निकली थी, ये बात तर्क से परे दिखती है। दत्तक पुत्र दामोदर राव का जन्म नवंबर 1849 में हुआ था, और मई 1857 में शुरू हुए 1857 के विद्रोह को दबाने में लगी रही लक्ष्मीबाई मार्च 1858 में इसमें शामिल हुई। तब तक दामोदर की उम्र तकरीबन साढ़े 8 साल की होगी। साढ़े 8 साल के बच्चे को 20-22 साल की बच्ची पीठ पर दुधमुंहे बच्चे की तरह कैसे लपेट सकी होगी, वो भी युद्ध के मैदान में।
झांसी के राजा के नाम से प्रचारित गंगाधर राव ने बुढापे में मनु तांबे नामक एक लडकी के साथ शादी रचाई और उसका नाम मनु से बदलकर लक्ष्मीबाई रखा ! झांसी स्वतंत्र राज्य नहीं था, यानी गंगाधर को जबरन राजा और लक्ष्मीबाई को जबरन रानी के रूप में प्रचारित किया गया। लक्ष्मीबाई एक साधारण महिला थी जबकि गंगाधर राव निवालकर नपुंसक और तमाम बीमारियों से पीड़ित था।

1857 के संग्राम मे लक्ष्मीबाई ने जख्मी ब्रिटिश सैनिकों की मरहमपट्टी करने का का काम किया था ! लक्ष्मीबाई ने कभी भी लड़ाई

लड़ी ही नहीं। लक्ष्मीबाई ने तो कैप्टन जॉरडन को माफीनामा लिखकर दिया था ! झांसी का किला बचाने का काम
कोरी समाज की झलकारीबाई ने अपने पति पूरन के साथ किया था !

लक्ष्मीबाई तो 1858 में प्रतापगढ के राजा की मदद से झांसी से नेपाल भागकर गई थी ! शोधकर्ताओं के अनुसार उसकी मौत 1915 में 80 साल की उम्र में हुई। इसका सबूत इतिहासकार शाम पाटील ने दिया है। लक्ष्मीबाई का पति ब्राह्मण
गंगाधर नपुंसक था। लक्ष्मीबाई इसलिए अपने एक खास मर्दानखाना रखती थी।
लक्ष्मीबाई बाई का कोई भी असली चित्र या फोटो उपलब्ध नहीं है। जो फोटो लक्ष्मीबाई के बताए जाते हैं, वो सब काल्पनिक हैं, और दरअसल झलकारी बाई के हैं। झलकारी बाई हूबहू लक्ष्मीबाई की तरह दिखती थीं और रानी की महिला सेना दुर्गा दलकी सेनापति थी।


झांसी की लक्ष्मीबाई के कैप्टन जॉर्डन को माफीनामा लिखने का प्रमाण महाराष्ट्र के लक्ष्मण शास्त्री जोशी ने महाराष्ट्र "मराठी भाषा न्यानकोश" में दिया है !

सुभद्रा कुमारी चौहान ने झूठी लयबद्ध कविता गढ़कर लक्ष्मी बाई का काल्पनिक और वीरतापूर्ण चरित्र चित्रण करके देश और इतिहास को भी गुमराह किया।

लक्ष्मी बाई के साथ जब शादी के नाम पर बलात्कार हुआ तब उसकी उम्र तकरीबन दस साल की थी। सुभद्रा कुमारी चौहान के मुताबिक, और आम धारणा के मुताबिक, तब तक वो बरछी भाला, तलवार चलाने और घुड़सवारी करने में माहिर हो गई थी।

जब कथित तौर पर रानी अपने दत्तक पुत्र दामोदर को पीठ पर दुधमुंहे बच्चे की तरह बांध कर घोड़े पर सवार होकर निकली, तब दामोदर की उमर तकरीबन उतनी ही थी जितनी उमर रानी की कथित शादी के समय थी।
या तो रानी के उस उमर में रणकौशल में दक्ष होने की बात झूठी थी, या दामोदर परम भोंदू थे।

दत्तक पुत्र दामोदर राव का जन्म 1849 में हुआ था, और मई 1857 में शुरू हुए 1857 के विद्रोह को दबाने में लगी रही लक्ष्मीबाई मार्च 1858 में इसमें शामिल हुई। तब तक दामोदर की उम्र तकरीबन 9 साल की रही होगी, जो 21-22 साल की लक्ष्मी बाई की पीठ पर बंधा रहा !!


महेंद्र यादव जी की फेसबुक वाल से 

Thursday 9 November 2017

ब्राह्मण न तो हिन्दू है न भारतीय ,वैज्ञानिक खोजो ने किया खुलासा

जन उदय : वैसे तो जब से यह दुनिया बनी है तब से मानव सवभाव लालची ही रहा है और मानव अपने अपनों के लिए उनके फायदे के लिए ही काम करता है लेकिन सभ्यता के बढ़ते चरणों में जब देश समाज आता है तो हर इंसान देश को और देश की जनता को सर्वोपरी रखते है और वैसे भी जो लोग देश के नहीं होते वे लोग देशद्रोही कहलाते है . इस तरह के लोग हर देश में होते है और उनका इतिहास भी होता है भारत में ऐसे ही एक जाति है जिसे ब्राह्मण कहते ही 

ब्राह्मणों का इतिहास . 

ब्राह्मणों के अनुसार ये लोग किसी भगवान् के मूह से पैदा हुए है और उस भगवान् ने इन्हें सर्वोच्च स्थान दिया है , भगवान् ने सिर्फ इन्हें ही पढने का धिकार दिया इन्हें यह भी अधिकार दिए कि ये किसी भी स्त्री का बलात्कार कर सकते है , किसी भी दुसरे समुदाय के लोगो की स्मप्प्ती छीन सकते है क्योकि ऐसा इन्हें भगवान् ने कहा है ... अगर कोई सामान्य अक्ल का व्यक्ति इनकी इन बातो को सुने तो या तो हंस पढ़ेगा या इन्हें मुर्ख मानते हुए चला जाएगा , लेकिन कमाल की बात यह है की ये लोग इस बात पर अडिग है की ये लोग महान है सबसे बड़ी बात ये लोग इस जाति के आधार पर सबसे घृणा करते है और ऐसा वही लोग कर सकते है जो लोग उस समाज और देश के निवासी नहीं होते 

ब्राह्मणों के इतिहास में यह साफ़ साफ़ पता चलता है कि ये लोग यूरोप , इटली , जर्मन से भारत की और घुमन्तु जाति के रूप ,में आये थे और यहाँ के मूल निवासिओ की दया पर यहाँ रहने लगे बदले में इन्होने यहाँ के मूलनिवासी लोगो को अपनी बेतिया गिफ्ट दी और इनसे पैदा हुए लोग इंडो – आर्यन लोग कहलाये आर्य यानी ब्राह्मण विदेशी है इस बात के सारे वैज्ञानिक प्रमाण है और मिले है 

इन लोगो ने यहाँ के लोगो से जो दुश्मनी की है वह शायद मानव सभ्यता में कही भी नहीं मिलेगी यानी कुल मिला कर ये लोग एक आतंकवादी दस्ते के रूप में काम करते है 


री दुनिया में हम जिस आतंकवाद को जानते है वह है हिंसक आतंकवाद यानी इसमें या इसके मानने वाले सिर्फ हिंसा में विशवास रखते है यानी अल कायदा , आर एस एस , आइसिस ,लिट्टे जैसे संघठन इसमें आते है , दूसरा होता है सांस्कृतिक आतंकवाद जो दुनिया में सिर्फ आर एस एस चलाता है इसके पूरी दुनिया में बहुत सारे सन्घठन है जो लोगो को गुमराह करके अपनी संस्क्रती की और खींचते है और उन्हें अपने समाज और संस्क्रती की सच्चाई से दूर रखते है , आर एस एस के सन्घठन , अमरीका , यूरोप , कनाडा ,एशिया सभी देश में ये लोग काम करते है इसके कुछ मुख्या एजेंट है ब्रहम कुमारी , पतंजलि , आर्ट ऑफ़ लिविंग , विश्व हिन्दू परिषद , बजरंग दल आदि 

तीसरा है राजननीतिक आतंकवाद इसमें अमरीका रूस , चीन , कोरिया इसराइल आदि मुख्य देश है जो पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए इन देशे में तरह तरह के आन्दोलन चलवाते है , इन देशो की अर्थ वाव्य्स्था पर कब्जा जमाते है और इन् देशो को वैसा ही चलाने की कोशिस करते है जैसा ये चाहते है 

भारत में एक वर्ग द्वारा फैलाई जा रही भ्रान्तियो के बारे में यानी रामायण और महाभारत कभी इस देश में हुए या नहीं या ये सिर्फ कोरी कल्पना है , इतिहास ने भी विज्ञान के नियमो को अपनाया है और इतिहास 
का लेखन वास्तुनिष्ट सामग्री पर लेखन के लिए ही जो डाला गया है , और जब हम वास्तुनिष्ट सबूतों या सामग्री की बात करते है तो उस पर रामायण और महाभारत खरी नहीं उतरती , आइये देखे कैसे 

कहानी रामयाण और महाभारत एक एपिक की तरह लिखे गए ज्सिका मकसद सिर्फ और सिर्फ एक राजनितिक षड्यंत्र तय्यार करना था जिसका पहला उधाह्र्ण है 

1.कोई भी वास्तु /शिल्प सबूत नहीं : हर राजा , महाराजा , अपने लिए महल बनवाता है , भवन बनवाता है , बाग़ बगीचे बनवाता है और इन इमारतो को वह कुछ ख़ास तरीके से बनवाता है यानी हम अगर सम्राट अशोक का इतिहास देखे तो हमें सभी प्रकार के सबूत मिलते है वास्तु भी शिल्प भी लेकिन रामायण और महाभारत के इन अभिनेताओं का कुछ भी नहीं मिलता , कुछ संघटनो का कहना है की मंदिर मिले है भगवान् के तो कोई इनसे पूछे क्या भगवान् इन्हों मंदिरों से शासन करते थे ?? 

2 . हर शासक , राजा , महाराजा अपने शासन काल में अपने सिक्के यानी व्यापार के लिए सिक्के ,मुद्रा चलवाता है , जो निश्चित तोर पर उसकी सीमा और विदेश सीमा यानी उसके शासन के बाहर भी खुदाई में मिलते है लेकिन रामायण , महाभारत काल का ऐसा कुछ भी नहीं मिलता 

३. विदेशो से सम्बन्ध एक राजा के लिए बड़े जरूरी होते है , युद्ध भी होते है संधिया भी होती है लेकिन इन दोनों काल के यानी रामायण और महाभारत काल का ऐसा कुछ भी सबूत नहीं मिलता 

४. विदेशो से व्यापार , यात्रिओ के लिए धर्मशाला , सुरक्षा वाव्य्स्था बाग़ बगीचे , सराय ये सब भी रहा बनवाता है लेकिन इन दोनों काल का कुछ भी नहीं मिलता 

५. संस्कृति – कला ,किसी भी इतिहास में या शासन में अपनी कला और संस्कृति जन्म लेती है , लेखक ,कवी आदि जन्म लेते है लेकिन न तो किताबो के स्तर पर कुछ भी नहीं मिलता , शिल्प , पेंटिंग , नक्काशी , वाल राइटिंग, वाल कार्विंग , भित्ति चित्र आदि इस काल का कुछ भी नहीं मिलता 

६. कालखंड . सबसे बड़ी बात होती है कि कोई भी घटना किसी कालखंड में ही होती है यानी उसका अपना एक समय होता है लेकिन इन ग्रंथो का कोई भी कालखंड नहीं है कहने को तो हर धार्मिक संघठन अपनी अपनी दलील देता रहता है , कोई कुछ काल बताता है तो कोई कुछ 

इसके अलावा जो ग्रन्थ या किताबे मिली है उनकी भी कार्बन डेटिंग से कोई सबूत नहीं मिलता की ये ग्रन्थ बहुत पुराने है बल्कि इसमें भी घपला है .. 
सो विज्ञान धारणा या कल्पना से शुरू हो सकता है लेकिन हमने उड़ने की कल्पना की लेकिन उड़े कैसे ? इसलिए विज्ञानिक कोई भी तत्थ्य आज तक नहीं है और न ही आयगा 

इतिहास बदला समय बदला लेकिन ये लोग नहीं बदले ये लोग आज भी इस वैज्ञानिक युग में अपना जातीय आतंक फैलाने पर तुले है 

Wednesday 8 November 2017

पोस्ट मोर्टेम . क्या वैदिक\सनातन\हिन्दू\ब्राह्मणी संस्कृति हजारों साल पुरानी हैं ? —Rajiv Patel


आज गैर ब्राह्मण लोगों में सनातन/वैदिक/हिन्दू सम्प्रदाय के नाम पर जितनी कट्टरता आ गयी है, क्या आजादी पूर्व इस सम्प्रदाय में किसी को आने- जाने, रहने की इजाजत थी ?

ब्राह्मणी व्यवस्था का प्रारम्भ काल कब से है इस पर आज तक कोई भी भाई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाये है। सिर्फ कहते है कि यह सनातन परंपरा है ! वैदिक परंपरा है !

लेकिन सनातन का जन्म और विस्तारित स्वरूप कब था ! सनातन का परिभाषित स्वरूप क्या होता था ! आज तक कोई स्पष्ट जबाब नहीं दे पाया है, क्या आज कोई है इसके विस्तारित स्वरूप को दिखाने वाले ?
वैदिक काल या वैदिक परंपरा कब थी ! वैदिक काल में कौन लोग थे ! आज तक इस पर कोई भी बुद्धिजीवि स्पष्ट बोल नहीं पाता है ? कुछ ब्राह्मणी अनुयाई अपनी लंबी-लंबी बातों से घुमाने लग जाते है। लेकिन अब वह समय चला गया, अब ब्राह्मणों के पोसुआ तोता से कोई घूमने वाला नहीं है। स्पष्ट जवाब और साक्ष्य रखना होगा।

भारत की प्राप्त सभ्यता सिंधु घाटी से शुरू होकर पाषाण काल और स्वर्ण काल पर आकर रुकती है। स्वर्ण काल के बाद राजपूत काल और अंत में मुगल काल पर ठहर जाती है। मुगल काल से भारत की धरोहर अंग्रेज काल पर स्थान्तरित होते हुए आजाद भारत के संवैधानिक काल में प्रवेश कर गयी है।

अब आप अवलोकन करें और अपने बहुजन भाइयों को साक्ष्य के साथ बताएं कि सिंधु सभ्यता, पाषाण सभ्यता, स्वर्ण काल सभ्यता, राजपूत सभ्यता, मुगल सभ्यता, अंग्रेज सभ्यता और आज भारत की संवैधानिक सभ्यता में ब्राह्मणी परंपरा या सनातन परंपरा या वैदिक परंपरा कैसे पैदा हो गयी ?

भारत की प्रमाणित सभ्यता सिंधु सभ्यता से शुरू होती है। उसके पूर्व काल की सभ्यता सिर्फ ब्राह्मणी ग्रंथो में मान्यता के रूप में दर्ज है। कही से भी उस सभ्यता की मान्यता का कोई प्रमाण नहीं मिला है। अगर किसी प्रकार की सभ्यता होगी भी तो उस सभ्यता का अभी तक किसी प्रकार का कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है। यानी जिस सभ्यता संस्कृति का कोई साक्ष्य न हो, उस पर टिका टिप्पणी करना एक प्रकार की मानसिक गुलामी ही है।

सिंधु सभ्यता की जानकारी भारत में अंग्रेज द्वारा की गई खुदाई से प्राप्त हुई थी। खुदाई से मिले प्रमाण द्वारा प्रतीत होता है कि यह सभ्यता काफी ही विकसित सभ्यता थी। नगरों का काफी विकसित प्रमाण मिलता है। प्राप्त अवशेष में व्यवस्थित घरो का निर्माण और सभी घरो से व्यवस्थित जल निकासी का निर्मित साक्ष्य आज भी दिखता है। प्राप्त नगरों बहुतों से स्तूपों का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। जिससे पता चलता है कि उनकी जीवन पद्धति में स्तूपों की भूमिका मुख्य रही होगी। उनकी भाषा और लिपि काफी समृद्ध थी। उस काल के सेलखड़ी (मिट्टी) की आयताकार मुहरें और तांबे की गुटीकाओं के काफी अवशेष मिले है। जिस पर कुछ लिपि और चित्र अंकित है। यह लिपि चित्रात्मक होने की वजह से इसको "चित्र लिपि" भी कहा जाता है। इस लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं गया है। टोराकोटा भी काफी मात्रा में मिला है। बैल का चित्र और उससे जुड़ी हुई बैलगाड़ी भी मिली है।

हाँ ! इस सभ्यता में किसी भी प्रकार के वैदिक देवी-देवता या वैदिक ग्रंथ का साक्ष्य या किसी देवी-देवता के मंदिर का साक्ष्य नहीं मिला है। किसी भी प्रकार का कोई मोहर जिस पर संस्कृत से कुछ अंकित हो, ऐसा कुछ भी नहीं मिला है।
अब आप इसे किसकी सभ्यता कहेगें ! साक्ष्य के नाम पर स्तूप और एक अंकुरित पौधा जिसमे दो पीपल के पत्तो का निशान बना चित्र मिला है। एक मूर्ति मिली है जिसका वस्त्र पहनने का सलीका चीवर (बौद्धिक परंपरा) जैसा है। यानी निश्चित ही यह सभ्यता कर्मकाण्ड से जुड़ी आडम्बर वाली नहीं होगी। यह सभ्यता निश्चित ही बुद्धि के मार्ग पर चलने वालो की रही होगी, बुद्धि का अनुसरण करने वालो की रही होगी, प्रकृति की शक्ति को मानकर उसका आदर और अनुसरण करने वालो की रही होगी।

लेकिन आज कुछ लोग अपनी बुद्धि (शील, समाधि, प्रज्ञा) को छोड़ कर, कर्मकांडियों द्वारा निर्मित आडम्बर और  पाखण्ड में कुछ ज्यादा ही लीन है।

फिर भी आप लोगों से जानना चाहता हूं कि इस सिंधु सभ्यता में क्या आपको सनातन या वैदिक परंपरा जैसा कुछ दिखा !
पाषाण काल:-

इस सभ्यता में सम्राट बिम्बिसार से लेकर सम्राट अशोक का महान योग्यदान रहा है। खुदाई से प्राप्त सम्राट बिम्बिसार का किला राजगीर में आज भी अवस्थित है। पुरातात्विक अवशेष से प्राप्त सम्राट बिम्बिसार महामानव गौतम के सबसे बड़े प्रश्रयदाता साबित हुए है। बिम्बिसार मगध के सम्राट थे। उनकी बहुत ही विशाल सीमा थी।
दूसरे सबसे प्रतापी सम्राट अशोक हुए। जिन्होंने भारतीय इतिहास में प्रथम बार अपनी लेखन कला द्वारा सभी प्रमुख बातो को शिलाओं पर लिपिबद्ध करने का काम किया था। शायद सम्राट अशोक शिलाओं पर लेखन का कार्य प्रारम्भ नहीं करते तो आज भारत का लिखित इतिहास शून्य होता और उसके जगह पर हम सभी लोग ब्राह्मणी जातक कहानियों को ही भारत का इतिहास समझते।

सम्राट अशोक द्वारा लिखित लिपि में मुख्य "प्राकृत, खरोष्टि, आरमेई और यूनानी" है। इनके शिला लेख, स्तम्भ लेख और गुफा लेख काफी ही प्रसिद्ध है। सम्राट अशोक का शासन क्षेत्र भारत के अलावा तिब्बत, अफगान, बर्मा, लंका तक फैला हुआ था। आज इसी शासकीय क्षेत्र को दिखाकर ब्राह्मणी लोग "एकीकृत हिन्दू भारत" बोलते है जो सरासर गलत है।
पूर्व काल यानी सिंधु सभ्यता का ज्ञान, जो किसी वजह से विलुप्त हो गया था, उस ज्ञान को अपने कठिन परिश्रम से महामानव गौतम ने इसी काल में खोज निकाला था। इस ज्ञान को प्राप्त कर उन्होंने सिर्फ अपना लाभ ही नही लिया अपितु पूरे जनमानस को इस जीवन निर्वाण वाले ज्ञान से अभिभूत किया। उसी ज्ञान को अपनी "बुद्धि के शरण" मे जानेको कहते है। वह बुद्धि का ज्ञान था, विपश्यना का ज्ञान था और शील समाधि प्रज्ञा का ज्ञान था। उस ज्ञान के आधार पर भारत में शिक्षा का विशाल केंद्र था जिसका नाम "तक्षशिला विश्वविद्यालय" था। जहां की प्राप्त लिपि प्राकृत थी। जिसमे पूरे एशिया से लोग विपश्यना की शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इस समय भारत के लोग "अष्टांगिग मार्ग" (शील, समाधि, प्रज्ञा) के अनुयाई थे। जिसका किसी भी पूजा प्रार्थना से संबंध नहीं था। सिर्फ उस "अष्टांगिक मार्ग" का पालन करना या उसके अनुसार अपनी जिंदगी को ढालना, अनुसरण करना था।


इस काल में कोई ब्राह्मणी मंदिर, ब्राह्मणी देवी देवता या ब्राह्मणी ईश्वर का साक्ष्य नहीं मिला है। कोई भी ब्राह्मणी ग्रन्थों का या संस्कृत लिपि का कोई अवशेष प्राप्त नहीं हुआ है। यहां तक कि इस पाषाण काल के मार्गदाता महामानव गौतम बुद्ध की भी कोई मूर्ति या मठ नहीं था।

महामानव गौतम ने किसी को नही बोला कि आप गौतम शरणम गच्छामि बोलो ! किसी को नही बोला कि आप गौतम के अनुयाई बनो ! सभी को एक ही बात बोले कि आप अपनी "बुद्धि के शरण" मे जाओ। आप कुदरत के बताए धम्म मार्ग (शील समाधि प्रज्ञा, प्रतीत्यसमुत्पाद, अनीश्वरवाद, अनित्यवाद, अनात्मवाद) का अनुशरण करो।
क्या फिर भी इस सभ्यता में आपको सनातन या वैदिक परंपरा जैसा कुछ दिखा ?

स्वर्ण काल:-

भारत का स्वर्ण काल मुख्यतः गुप्त काल को बोला जाता है। इस काल में भारत को बहुत ही समृद्ध भारत कहाँ जाता था। इस समय भारत में अनेको विश्वविद्यालय के अंदर एशिया महाद्वीप से हजारों विद्यार्थी शिक्षा लेने आते थे। उस समय शिक्षा का मुख्य केंद्र नालन्दा, तक्षशिला, तेल्हाड़ा, उद्धान्तपुरी, उज्जैन जैसे अनेको शिक्षण संस्थान थे। सभी विश्वविद्यालय में पढ़ने और पढ़ाने वाली लिपि "पाली" थी, जिसके माध्यम से लोगो को शिक्षा दी जाती थी। आज भी उत्खनन में उसका प्रमाण मिल रहा है। वहां के पढ़ने वाले सभी देशों के विद्यार्थी अपने देश में जाकर जो प्रमाण छोड़ रहे है वह "अष्टांगिक मार्ग" "प्रतीत्यसमुत्पाद" "अनित्यवाद" "अनात्मवाद" "अनीश्वरवाद" की शिक्षा का प्रमाण है।
हाँ ! इस काल में एक परिवर्तन देखने को मिलता है और वह परिवर्तन है कुषाण शासक के प्रारम्भ काल से "थेरवाद" (थेर शब्द का पाली में अर्थ है "मूल मार्ग") से परिष्कृत करते हुए महायान (विस्तारीकरण) यानी "अष्टांगिक मार्ग" का अनुशरण भी करेगें और उस मार्ग पर चलने को बताने वाले महामानव "गौतम" की मूर्ति पूजा भी करेगें। यानी भारत में "गौतम बुद्ध" की मूर्ति पूजा की प्रथम शुरुयात कुषाण शासक के समय से ही शुरू हुई थी। जिसके प्रमाण स्वरूप कुषाण सम्राट "गौतम बुद्ध" की अनगिनत मूर्ति और मठो की स्थापना करवाता है (गौतम बुद्ध की मूर्ति यूनान शैली में बनने के कारण ही उनकी चेहरे, कान, बाल की बनावट भारतीय न होकर यूनानी जैसा है।) कुषाण शासक की मूर्ति स्थापना को आगे चार चांद गुप्त शासक ने लगाया। बिहार में स्थित "गया" का बौद्ध मठ भी गुप्त शासक का बनाया हुआ है। इस मूर्ति स्थापना को सुचारू रूप से सम्राट हर्षवर्धन ने भी बखूबी निभाया। जिसका परिणाम भारत में "थेरवाद" का रूपांतरण  "महायान" में हो गया और आगे भारत के अधिकांस अनुयाई महायानी हो गए।

लेकिन यहां भी किसी प्रकार के कोई ब्राह्मणी देवी देवता, ब्राह्मणी ईश्वर या ब्राह्मणी परमात्मा के मंदिर का साक्ष्य नही मिलता है। कोई भी ब्राह्मणी ग्रंथ या संस्कृत लिपि में लिखित अभिलेख प्राप्त नही है।
इस काल के जितने भी शिक्षण संस्थान की जानकारी प्राप्त हुई है उन सभी के अंदर पाली लिपि में शिक्षा दी जाती थी। जितने भी लिखित पत्र मिले है वह सभी पत्र पाली लिपि द्वारा लिखित सरकारी अभिलेखागार में सुरक्षित रखे है। इसलिए आप सभी ब्राह्मणी तीतर प्रवक्ता से निवेदन है कि आप लोग अपनी ब्राह्मणी ज्ञान युक्त संस्कृत लिपि में लिखित वेद, गीता, रामायण, उपनिषद और पुराण का पत्र बताए कि वह किस अभिलेखागार में सुरक्षित है ?

राजपूत काल:-

भारत में वर्ण और जाति का मिलना या उत्पन्न होना 950 ईस्वी के राजपूत काल के बाद ही प्रमाणित होता है। उसके पूर्व वर्ण और जातियो का साक्ष्य नहीं है। पाल वंश के संस्थापक गोपाल थे। जिन्होंने "समृद्ध संस्कृति" वाले भारत के निर्माण हेतु "विक्रमशिला विश्वविद्यालय" की स्थापना करवाई थी। इस विक्रमशिला विद्यालय में पढ़ने वाले लोग ही उस महायान से अलग एक "बज्रयान" नाम का मार्ग विकसत करते हुए तंत्र साधना, मंत्र साधना, शब्दो की टंकार वाली ध्वनि का अविष्कार, जातक कहानियां की रचना, सूरा सुंदरी का प्रयोग किये थे। जिसमे "पाली लिपि" को संस्कारित (पाली वर्णमाला में कुछ ध्वनि मात्रा और व्याकरण का समावेश करते हुए संस्कारित किया) करते हुए एक व्याकरण युक्त लिपि का उदय करवाया, जिसका नाम "संस्कृत" रखा। बज्रायनी परंपरा वाले ने ही कुछ ध्वनि का अविष्कार किया जिसके उच्चारण से जबरदस्त शारीरिक कम्पन वाली टंकार निकलती थी जैसे:- ओम, प्रां, प्रीम, प्रौम, फ़्ट, फूट, स्वाहा, क्लीं, बिच्चे, चामुण्डायै, नमः, जैसे अनेको शब्दो का अविष्कार हुआ। "बज्रायनी" के अंदर तंत्र मंत्र सिद्धि साधना का काफी महत्व था, जिसका परिणाम सिद्ध पीठों का बनना शुरू हुआ। उसी सिद्ध पीठों में कामख्या पीठ, रजरप्पा पीठ, तारापीठ, चंडी पीठ, ज्वाला पीठ, पटनदेवी पीठ, कालीबाड़ी पीठ, वैष्णव पीठ जैसे काफी अन्य सिद्ध पीठों का उद्भव हुआ।
यहीं "बज्रायनी" लोगों ने "महायानी" मार्ग को खत्म करते हुए आज जो शोषण करने वाली वर्ण व्यवस्था हैं उसकी स्थापना कि थी, जिसने पूर्व वाली शील, समाधि, प्रज्ञा के अनुसरण के जगह पर आसान, मंत्रो का जाप, किसी नदी में स्नान, कर्मकाण्ड द्वारा मुक्ति पाने के सुलभ तरीकों के द्वारा लोगों दिज्ञभ्रमित किया।
भारत में इसी समय (Three Ediats) शंकराचार्य, जैमनी, कुमारहिल भट्ट जैसे लोगो का जन्म हुआ और उन सभी द्वारा पाली से परिष्कृत संस्कृत लिपि में मनुस्मृति, वेद, गीता, रामायण और जातक कथाओं की रचना कि गयी। सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात है कि सभी पुस्तको के लेखक को अज्ञात काल और अज्ञात काल्पनिक नाम के साथ लिखा गया है। किसी भी लेख का कोई अवशेष शिलापट्ट, ताम्रपत्र, ताड़पत्र पर नहीं मिला है।

अब सोचना यह है कि बज्रायनी परंपरा की मंत्र साधना, तंत्र साधना, शब्दो के टंकार वाली बोली, आज कहाँ बोली जाती है ? उसका सिद्धि स्थान आज किसके द्वारा पूजनीय है ? उसके द्वारा सिद्ध आश्रम पर कौन बैठा है ? सुरा सुंदरी यानी देवदासी प्रथा कहाँ है ? सुलभ नदी स्नान से मुक्ति कहाँ है ?

फैशला स्वयं कर लो ! जहां वह शब्दो की टंकार है वह बज्रायनी परंपरा का बदला रूप है ! जिसका "शक्ति पीठ" है  वह बज्रायनी का बदला रूप है ! उस बदले रूप को क्या कहते हैं, वह आप भली प्रकार जानते हो !
पूरे एशिया में थेरवाद और महायानी अनुयाई लोग मिल जायेंगे, लेकिन भारत में 850 ईस्वी के बाद उत्पादित बज्रायनी परंपरा किसी देश में नहीं मिलेगी। प्रश्न है कि भारत की बज्रायनी परम्परा लेह लद्दाख को छोड़कर कहाँ गयी ? भारत के बज्रायनी लामा कहाँ है ? कहीं यही तो नही जो आज के व्यवस्था में शंकराचार्य बनकर बैठे है ? क्योंकि प्रथम शंकराचार्य का उदय भी 850 ईस्वी के बाद से है।

बज्रयान का थोड़ा सी झलक आपको तिब्बत के बौद्ध लामा में देखने को मिल सकती है। उनके पास भी जातक कथाओं पर निर्मित काफी संग्रह है। उसी कथा में विष्णु के अवतार की कथा भी है। तिब्बत का लामा भी तंत्र, मंत्र, सिद्धि साधना का अनुयाई है।

मुग़ल काल:-

भारत में सबसे ज्यादा बहुजनो का पतन इसी काल में हुआ था। 950 ईस्वी के बाद का काल ही राजपुताना सम्राज्य के उदय और ब्राह्मणों की मुफ्तखोरी काल है। ब्राह्मण इस मुफ्तखोरी की वजह से राजपूतो को चने के झाड़ पर चढ़ाते हुए राजघरानो का विखंडन करवाते गए। जिस कारण राजपूतो के आपस में झगड़े बढ़ने लगे। उसका परिणाम हुआ कि राजपूत साम्राज्य का पतन। अहंकारी ओर सत्ता लोभी राजपूत ओर ब्राह्मण अपनी आपसी लड़ाई की वजह से विदेशी शासक या विदेशी लुटेरे को एक दूसरे की खुफिया सूचना देकर उस पर आक्रमण करने के लिए बुलाने लगे। जिसका परिणाम आपके सामने था।

हालांकि 950 ईस्वी यानी राजपूत काल से पूर्व भी भारत के अंदर बहुत से विदेशी शासक आये थे लेकिन वे सभी सम्राट अपने समय काल में ब्राह्मणी कर्मकाण्ड, वर्ण वाद और जाति वाद नहीं होने के कारण भारत के "अष्टांगिक" मार्ग वाली सभ्यता में विलीन हो गए, लेकिन राजपूत काल के बाद जितने भी विदेशी शासक भारत आये वह सभी भारत की कर्मकाण्ड वाली, वर्णवाद वाली जाति में नहीं घुले।

इस 700 वर्ष के मुगल काल में मुगल, ब्राह्मण, राजपूत गठजोड़ के द्वारा इन सभी ने सत्ता पर बैठ कर परम सुख का आनन्द लिया था। नाम मुगल सम्राट का होता था लेकिन सारा काम प्रधान सेनापति या प्रधान दरबारी का होता था। आपको तो मालूम ही होगा कि सभी मुगल सम्राट के प्रधान सेनापति और प्रधान दरबारी कौन थे। तुलसीदास जैसे ज्ञात- अज्ञात अधिकांश ब्राह्मणी ग्रंथो के लेखक की लिखित रचनाएं इसी काल की है। आज ब्राह्मणी ग्रंथो की जो पांडुलिपि मिली है और सुरक्षित है वह 13 से 18वीं शताब्दी के आस पास की लिखी मिली है। क्योकि चीन ने 1261ईस्वी में कागज का अविष्कार किया था, जिसको मुगल शासक ने अपने लेखन के लिए आयात किया था। 16वीं शताब्दी में तुलसीदास ने मस्जिद में रहकर रामायण लिखा था। वेद की 62 मूल पाण्डुलिपि आज भी नेपाल के संग्रालय में सुरक्षित रखी है। पुरातात्विक विभाग द्वारा उस पाण्डुलिपि का लेखन 15वीं शताब्दी का सत्यापत किया गया है।
इसी काल में ब्राह्मणों ने भारतीय बहुजन जनता को अशिक्षित करने हेतु पूर्व के सभी शिक्षण संस्थान को ब्राह्मण राजपूत मुगल गठजोड़ द्वारा गुप्त समझौते के तहत नष्ट करवा दिए।

ऐसे तो ब्राह्मण ने अपने ग्रंथो में लिखा है कि ब्राह्मणों द्वारा हजारों गुरुकुल बने हुए थे जिसमें लोगों को शिक्षा दी जाती थी। लेकिन आजतक उसके गुरुकल का कोई भी साक्ष्य नही मिला है।

इसी काल में शंकराचार्य के अनुयाई और मध्वाचार्य के अनुयाई में काफी द्वंदयुद्ध हुआ, जिसका परिणाम शैव पंथी और वैष्णव पंथी नाम से दो मतों का अलग अलग स्वरूप मे पाया गया। एक शैव पंथी "अद्वैतवाद" के अनुयाई (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या) हुए, जो "शिव लिंग" युक्त मंदिर का निर्माण किया और दूसरे वैष्णव पंथी "द्वैतवाद" के अनुयाई हुए, जिसने विष्णु राम कृष्ण (अवतारवाद) जैसी जातक कथाओं पर आधारित मंदिर का निर्माण किया। साथ ही द्वैतवादिओं ने पूर्व के कुछ बज्रायनी द्वारा स्थापित "शक्तिपीठ" वाले बुद्ध मठो का भी वस्त्र और मुकुट के साथ नाम बदलते हुए ब्राह्मणी व्यवस्था में "शक्तिपीठ" के नाम से समाहित कर लिया। जिसको आज आप सभी लोग गौर करने पर पहचान जाओगे(आगे रूपांतिरित मंदिर को दिखायेगें)। लेकिन आज किसी ब्राह्मणी अनुयाई से पूछो, द्वैतवाद, अद्वैतवाद और शक्तिपीठ क्या होता है तो शायद ही कोई इसकी जानकारी दे पायेगा ! उसे तो सिर्फ ब्राह्मणी कर्मकाण्ड और ब्राह्मणी तोता तीतर बनने से मतलब है।

इस मुगल ब्राह्मण राजपूत गठजोड़ के आतंक से बचन हेतु, बहुजन जनता के अनेको समाज सुधारकर उत्पन्न हुए लेकिन सत्ता के शक्ति का दुरुपयोग करते हुए ब्राह्मणों ने सभी को दबा (कुछ की हत्या कर) समाप्त कर
दिया या अपने ब्राह्मणी शब्दो से जोड़कर "भक्ति मार्ग" कहकर जनता को दिज्ञभ्रमित कर दिया। लेकिन एक समाज सुधारक इसकी शक्ति से नही दबा। वह समाज सुधारक का नाम है कबीरदास के शिष्य "गुरु नानक देव" और नौ गुरु, जिसने मुगल ब्राह्मण राजपूत से अलग अपनी व्यवस्था बनाई। उन्होंने ब्राह्मणों से अलग जो व्यवस्था बनाई है उस व्यवस्था में आप जाकर देखो, उसमें ब्राह्मणों के कोई पाखण्ड, आडम्बर, कुरीतियाँ नही दिखेगी।

आम भारतीय की आज धारणा है कि मुस्लिम शासक ने भारतीयों को जबरदस्ती मुस्लिम बनाया था। क्या आपको लगता है कि जिस सम्राटों का शासन 700 वर्ष रहे और उन सभी के द्वारा जबरदस्ती धर्मांतरण करवाने के बाद भी मात्र 10% लोगो ही मुस्लिम बने ! भाई इस कहानी में बहुत बड़ा ब्राह्मणी लोचा है। सच्चाई यह है कि उस समय मुस्लिम या कोई भी सम्राट का आतंक सिर्फ सत्ता हेतु होता था, यानी मुस्लिम-मुस्लिम पर भी और राजपूत-राजपूत पर भी हमला करता था।

उस समय भारतीय बहुसंख्यक जनता के उपर सबसे ज्यादा आतंक सम्राट के चमचे बेलचे का था और चमचे बेलचे कौन ? राजपूत और ब्राह्मण। इसी चमचे बेलचे के आतंक से बचने हेतु कुछ बहुजन जनता के लोग शासक वर्ग का धर्म कबूल करते थे। कारण चमचे बेलचे अब उसे परेसान नहीं करेंगे ! लेकिन इस धर्मांतरण का आज के ब्राह्मणी लेखक कुछ और ही रूप दिखाते है। जो सरासर गलत और अतार्किक है।

अंग्रेज काल:-

सही अर्थो में अंग्रेजो का प्रारम्भ काल भारतीय बहुजन के लिए मुगल ब्राह्मणी गठजोड़ काल का ही समय था। ब्राह्मणों ने अंग्रेजो से गुप्त समझौता किया था कि आप इस देश के आर्थिक शासक रहेंगे और हम इस देश के बहुजन जनता के मानसिक शासक रहेंगे। भला इस प्रस्ताव से अंग्रेजो को क्या गुरेज थी। जो दोनों की दोस्ती और सत्ता चल निकली।
इसी गठजोड़ का परिणाम था कि ब्राह्मणों द्वारा अंग्रेजो की आरती उतारना ! उस आरती में टैगोर ने लिखा, अंग्रेज आप भारत के जनों के, गणों के, मनो के अधिनायक हो, भारत के तुम्ही भाग्यविधाता हो। सिर्फ आरती ही नही, लिखित गुणगान भी शुरू हो गया था। उसी लिखित गुणगान ग्रंथ का नाम है "भविष्य पुराण"। कितने लोग भविष्य पुराण पढ़े हैं ! आप लोग उसे जरूर पढ़ें ! उसको पढेंगे तो उसमें विक्टोरिया का गुणगान करते हुए श्लोक मिलेंगे, यानी कुछ ब्राह्मणी ग्रंथो का लेखन काल अंग्रेज काल में भी सम्पन्न किया गया था। अंग्रेज काल मे 90% प्रशासनिक पदों पर ब्राह्मण ही विद्यमान थे। तिलक ने तो यहाँ तक कहा था अगर अंग्रेज ब्राह्मणों के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते तो हमें अंग्रेजी राज से कोई आपत्ति नहीं है।

वो तो धन्य कहें कि अंग्रेज शासक पर अंतराष्ट्रीय दबाव था। जो दबाव इतना ज्यादा था कि अंग्रेजो को मजबूरन भारत मे ब्राह्मणों द्वारा पूर्व से स्थापित कुरीतियों को कम करना पड़ा यानी कुछ को कानूनन अवैध घोषित किया गया। लेकिन फिर भी छुआछुत, वर्ण व्यवस्था, आडम्बर, पाखण्ड, सामंतो द्वारा गरीबो का भूमि अधिग्रहण, गरीबो पर सामंतो का शोषण बंद नहीं करवाया, वह बदस्तूर जारी रहा। अंग्रेज सरकार के ऊपर अंतराष्ट्रीय दबाव काफी पड़ने की वजह से अति कुरीतियुक्त कुछ ब्राह्मणी परंपरा को बंद करवाना पड़ा था। जिसके वजह से कुछ ब्राह्मणों के तथाकथित मठाधीस अंग्रेज सरकार से नाराज भी हो गये थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से अंग्रेज सरकार की जड़े हिलने लगी थी। अंग्रेज की इसी कमजोरी को भांपते हुए ब्राह्मणों ने बहुजन जनता को अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया। एक ओर अंग्रेज विश्वयुद्ध से कमजोर हो रहे थे तो दूसरी ओर अपने सलाहकार ब्राह्मणों के धोखे को देख रहे थे। अंततः अंग्रेज सरकार स्वेच्छा से 1945 ईस्वी में घोषणा कर दिया कि तुम लोगों को आजाद कर देता हूँ लेकिन तुम लोग शासन सत्ता कैसे करोगे ! वह मुझे बताओ ! इसी उधेड़बुन में 2 वर्ष लग गये। परिणामतः 1947 ईस्वी में अंग्रेजी सरकार ने देश को आजाद कर दिया। इसके पूर्व एक भी ब्राह्मण ने अंग्रेजो के खिलाफ आजादी का आंदोलन नहीं किया था।

भारत के बहुजनों के भलाई की शुरुआत सबसे पहले ''बहुजनो का स्वराज्य" को स्थापित करने वाले नायक "शिवाजी महाराज" के द्वारा की गई थी, जो हमेशा मुगलों और राजपूतो से लड़े। इनके बाद इनके बताए मार्ग को ज्ञान से प्रकाशित करने वाले "ज्योतिबा फुले" हुए। ज्योतिबा फुलेजी ने हमेशा बहुजनो को अपनी ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित करने का काम किया, इसके बाद इस शोषित समाज का सबसे ज्यादा कल्याण "साहूजी महाराज" ने किया। इन सभी कल्यणकारी सोच को आजादी बाद न्यायकारी रूप देते हुए "बाबा साहेब" ने अपने अद्वितीय ज्ञान कौशल और दूरदर्शिता से लिपिबद्ध करते हुए एक "संविधान" का रूप दे दिया, जिसको आज ब्राह्मण बदलना चाह रहे है लेकिन बाबासाहेब के द्वारा किये गए लिपिबद्ध ताले को खोलने की चाभी ब्राह्मणों को नही मिल रही है।

आजादी बाद का भारत यानी बहुजनो की स्वतंत्र जिंदगी, उस जिंदगी की झलक आज हम देख रहे है। आजादी मिलने के बाद से बहुजन वर्ग का शोषण पूर्व के मुगल और अंग्रेज का अर्दली ब्राह्मण सीधा अपने नाम पर करने लगा है। उसी का परिणाम है कि आज बहुजन वर्गों से भी बहुत सारे तीतर बटेर की संख्या पैदा हो गई है जो बहुजन वर्ग को ब्राह्मणों के यहां गिरवी रखते हुए अपना स्वार्थ साधते है और ब्राह्मणों की चापलूसी में लगे रहते है। ऐसे तीतर बटेर को ब्राह्मणवादी संगठन कभी अर्दली तो कभी निर्दली, कभी मंत्री तो कभी संत्री, कभी दीवान तो कभी प्रधान, कभी राष्ट्रपति तो कभी राष्ट्रीय पहचान बना देते है।

आज हर वर्ग के लोग, जो अति महत्वकांक्षी है, रातो रात करोड़ पति बनना चाहते है, वैसे लालायित लोग आज ब्राह्मण के तीतर बटेर बनते हुए ब्राह्मणवाद के अर्दली बन बैठे है।  ब्राह्मणवाद को फलने फूलने में जो परंपरा सहायक है उसके प्रचारक बन बैठे है।

इसका छोटा सा नमूना आप स्वयं देख सकते है। आज शिक्षा का सदृश्य लाभ फुलेजी की दूरदर्शिता और बाबासाहेब की संविधान की देन है। लेकिन आज के लोग उनकी देन को नही मानते हुए काल्पनिक "ब्राह्मणी महिला सरस्वती" को मानते है। कहाँ थी वह महिला जब पढ़ने की आजादी नही थी !

आज अधिकांश लोगों को शिक्षा प्राप्त करने से लेकर सरकारी सेवा प्राप्त करने में साहूजी की समानता वाली सोच आरक्षण और बाबासाहेब के संविधान की वजह से प्राप्त है लेकिन आज सरकारी सेवा प्राप्त होने के बाद लोग "साई कृपा, राम कृपा, छठी कृपा, दुर्गा कृपा, काली कृपा, कृष्ण कृपा, शिव कृपा, गणेश कृपा, परमेश्वर कृपा, ईश्वर कृपा" बोलते है। आजादी पूर्व कहाँ थे ये सभी ब्राह्मणी काल्पनिक देवी देवता ! जब बहुजन वर्ग को पढ़ने का अधिकार नहीं था ! सत्ता सुख भोगने के अधिकार नहीं था ! सम्मान पाने का अधिकार नहीं था ! यहां तक कि ब्राह्मणों के बराबरी में बैठने का अधिकार नहीं था !

आज शिक्षा प्राप्त करने के बाद बहुजन लोग डॉक्टर, वकील, इंजिनियर, व्यापारी या ठेकेदार बनकर रहे है। लेकिन इस पेशे से धनोपार्जन करने के बाद ब्राह्मणी अनुयाई उल्लू वाली काल्पनिक "लक्ष्मी" को पूजते है। भाई, कहाँ थी यह ब्राह्मणी उल्लू वाली महिला जब धन रखने का अधिकार नही था ! कहीं ऐसा तो नही कि ब्राह्मणों द्वारा पूरे बहुजन समाज को उल्लू बनाने के पश्चात सभी से साक्षात उल्लू पुजवा रहे है और लोग उल्लू बनते हुए उल्लू को पूज भी रहे है।

आज सारी बातों को दिखाने के बाद बदलाव जैसा परिणाम देखने को मिल रहा है लेकिन फिर भी कुछ निहायत ही स्वार्थी ब्राह्मणी तोता है जो बहुजनो के विभीषण है जो ब्राह्मणों के साथ मिलकर बहुजन लोगों का नुकसान करना चाहते है !
जरूरत है वैसे विभीषणो से बचने की और उस विभीषण को भी ब्राह्मणी कथा अनुसार विभीषण के पात्र में काम करने वाला विभीषण की दुर्गति को देखकर सुधारने की !

हमे किसी भी समानतावादी मानवतावादी व्यक्ति से किसी भी प्रकार की कोई घृणा नही है। हमे तो सिर्फ "सनातन/वैदिक/कर्मकाण्ड" के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा फैलाये गए जातिवाद, वर्णवाद, धार्मिक पाखंडवाद, धार्मिक आडंबर, धार्मिक कर्मकांड और उस ब्राह्मणी जातिवादी व्यवस्था से नफरत है, जिसमे खुद अशिक्षित ब्राह्मण सभी व्यक्तियों से, सभी जातियों से, सभी वर्णो से सर्व श्रेष्ठ बनते हुए सभी को नीचा ठहराता है। स्वयं को ब्राह्मण अपने लिए अलग वेशभूषा, अलग कर्मकाण्ड, अलग संस्कार विधि करते हुए अन्य सभी वर्गों को नीच व्यवस्था देता है। हम उसी पाखंडी व्यवस्था का विरोध करते हैं। हम उसी झूठी परंपरा, कुरीतियों, काल्पनिकता का विरोध करते है, जिसको ब्राह्मणों ने सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए 1000 ईस्वी के अंदर बनाया है। क्या किसी बन्धु बान्धव को 850 ईस्वी से पूर्व कभी भी "सनातन/वैदिक" जैसी कोई ब्राह्मणी व्यवस्था दिखाई दिया ! नहीं न। फिर सनातन/वैदिक किस परंपरा को कहां जाता है। ये लोगों को दिज्ञभ्रमित करने वाले शब्द मात्र है जिससे भारत की भोली-भाली जनता को गुमराह किया जा रहा है।
आज कुछ लोगों को उस परंपरा में रहते-रहते या देखते-देखते, यह परंपरा प्राचीन लगने लगी है। लेकिन हमने इस काल्पनिक सनातन/वैदिक नाम की संस्कृति और परंपरा को "भारतीय पुरातात्विक" साक्ष्य के आधार पर दिखाते हुए या पूर्व का अवलोकन करते हुए स्पष्ट कर दिया कि ये सभ्यता 850 ईस्वी से पूर्व कभी नही थी ! बल्कि यह परंपरा मात्र 1000 वर्ष की है।

फिर भी 1000 वर्ष काफी होता है। समाज रूपी शरीर में इतने वर्षों से ब्राह्मणी पाखण्ड, आडम्बर, कुरीतिओं का होना अपने आप में एक जख्म जैसा है। आज समाज के अधिकांश लोग इस जख्म से अभ्यस्त हो अपने आप को इस जख्म को अपना अंग मानने लगे है। लेकिन क्या इस ब्राह्मणी जख्म और कोढ़ आदि का अभ्यस्त हो जाना उचित है या इस कोढ़ और जख्म की समस्या का निदान ढूढ़ना उचित है !

आज जरूरत है, शिवाजी के स्वराज्य, फुलेजी की शिक्षा, साहूजी की समानता और बाबासाहेब के न्याय से प्रेरित होते हुए सूझबूझ से इस जख्म का समाधान ढूढ़ने की और इस "ब्राह्मणी कोढ़" का फलदायी समाधान है अपने समाज में हुए फुलेजी, साहूजी, बाबासाहेब जैसे "सम्यक विचारवान शल्यचिकित्सक" से शल्यक्रिया करवाने की। जरूरत है समाज में व्याप्त ब्राह्मणी जख्म की शल्यक्रिया करवाते समय ब्राह्मणी जख्म में कुरीतियों वाली पिभ और पाखण्ड वाली मवाद को निकालने की।