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Tuesday 2 January 2018

भीमा कोरेगांव का युद्ध सदीओ के जातिय उत्पीडन ,अपमान और ब्राह्मण अत्याचार के खिलाफ लड़ा गया

 जन उदय : गले में हांडी , पीछे झाड़ू ,शिक्षा , रोटी, नग्न बदन  और इज्जत के जिन्दगी से दूर , पानी नहीं मिलता था , रोटी नहीं मिलती थी , गुलाम मजदूरों की तरह काम कराया जाता  था , कुल मिला कर जानवरों से ज्यादा बदतर जिन्दगी . क्या कोई ऐसी  जिन्दगी से निजात नहीं पाना  चाहेगा ?? तो क्या इसके लिए युद्ध लड़ना होगा ?? लड़ेंगे ऐसी जिन्दगी जीने से अच्छा है युद्ध में मारे जाए “  बस यही भावना थी उन ५०० ने हाथो में तलवार थामी और चल दिए मीलो  पैदल युद्ध के मैदान  में , भूखे पेट , प्यासे लेकिन उनके सामने बस एक मकसद था उन ब्राह्मण गद्दारों के सर काटना ,जिन्होंने उनकी जिन्दगी को नरक बना कर रखा था

और जैसे ही  युद्ध के मैदान में पहुचे टूट पढ़े  उन २९०००  हजार ब्राह्मणों पर एक भूखे सेर की तरह और अंत सबको मालूम है


“”””हर साल 1 जनवरी को पूरा विश्व नए साल के आगमन की खुशियां मनाता है. हालांकि इस दिन एक और खास घटना घटी थी, जिससे दलित समाज के शौर्य का पता चलता है. यह दिन कोरेगांव के संघर्ष के विजय का दिन भी है, जिसमें महारों ने ब्राह्मणवादी पेशवाओं को धूल चटा दी थी. भारत मंस अंग्रेज़ी राज़ की स्थापना के विषय में सामान्यतः लोग यह मानते हैं कि अंग्रेज़ों के पास आधुनिक हथियार और सेना थी इसलिए उन्होंने आसानी से भारत पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया. लेकिन सच्चाई यह है कि अंग्रेजों ने भारत के राजाओं-महाराजाओं को अंग्रेज़ी सेना से नहीं बल्कि भारतीय सैनिकों की मदद से परास्त किया था. अंग्रेजों की सेना में बड़ी संख्या में भर्ती होने वाले ये सैनिक कोई और नहीं बल्कि इस देश के अछूतकहलाने वाले लोग थे. जानवरों सा जीवन जीने को विवश अछूतों को जब अंग्रेजी सेना में नौकरी मिली तो बेहतर जीवन और इज्जत के लिए ये अंग्रेजी सेना में शामिल हो गए. इसके परिणाम स्वरूप जो संघर्ष हुआ वह देश के इतिहास में दर्ज है.  


1 जनवरी 1818 को कोरेगांव के युद्ध में महार सैनिकों ने ब्राह्मणवादी पेशवाओं को धूल चटा दी थी. इस ऐतिहासिक दिन को याद करते हुए डॉ बाबासाहेब आम्बेडकर प्रतिवर्ष 1 जनवरी को कोरेगांव जाकर उन वीर दलितों का नमन किया करते थे. डॉ आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेस (अंग्रेज़ी) के खंड 12 में द अनटचेबल्स एंड द पेक्स ब्रिटेनिकामें इस तथ्य का वर्णन किया है. ब्रिटिशों की भारत की जीत में वर्ष 1757 और 1818 का बड़ा महत्व है. 1757 में ईस्ट इण्डिया कंपनी और बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला के बीच युद्ध हुआ. इसे प्लासी की लड़ाई के नाम से जाना जाता है. यह पहला युद्ध था जिससे अंग्रेजों ने भारत की भूमि पर अपना अधिकार प्राप्त किया था. अंग्रजों ने भारत के अन्य भू-भाग पर अधिकार प्राप्त करने के लिए अंतिम युद्ध 1818  में किया. यह कोरेगांव की लड़ाई थी, जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त कर भारत में ब्रिटिश राज स्थापित किया. यहां 500 महार सैनिकों ने पेशवा राव के 28 हजार सैनिकों (घुड़सवारों एवं पैदल) की फौज को हराकर देश से पेशवाई का अंत किया. इन दोनों ही युद्धों में अंग्रेजों की जीत सिर्फ अछूतोंके कारण हुई. प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजी सेना में रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में लड़े लोग दुसाध (पासवान) थे और कोरेगांव के युद्ध में शामिल लोग महार थे. इस तरह ब्रिटिशों के पहले और आखिरी युद्ध दोनों ही में अंग्रेजों को विजय दिलाने वाले लोग दलित ही थे. इतना ही नहीं विद्रोह के समय अंग्रेजों का साथ देने वाली रेजिमेंट बॉम्बे रेजिमेंट और मद्रास रेजिमेंट थी, जिसमें क्रमशः महाराष्ट्र के महार और दक्षिण के पर्रैया थे.

कोरेगांव भीमा नदी के तट पर महाराष्ट्र के पुणे के पास स्थित है. 01 जनवरी 1818 को सर्द मौसम में एक ओर कुल 28 हजार सैनिकों जिनमें 20000 हजार घुड़सवार और 8000 पैदल सैनिक थे, जिनकी अगुवाई पेशवा बाजीराव-II कर रहे थे तो दूसरी ओर बॉम्बे नेटिव लाइट इन्फेंट्रीके 500 ‘महारसैनिक, जिसमें महज 250 घुड़सवार सैनिक ही थे. आप कल्पना कर सकते हैं कि सिर्फ 500 महार सैनिकों ने किस जज्बे से लड़ाई की होगी कि उन्होंने 28 हजार पेशवाओं को धूल चटा दिया. दूसरे शब्दों में कहें तो एक ओर ब्राह्मण राजबचाने की फिराक में पेशवाथे तो दूसरी ओर पेशवाओंके पशुवत अत्याचारोंसे बदलाचुकाने की फिराकमें गुस्से से तमतमाए महार’. आखिरकार इस घमासान युद्ध में ब्रह्मा के मुख से पैदाहुए पेशवा की शर्मनाक पराजय हुई. 500 लड़ाकों की छोटी सी सेना ने हजारों सैनिकों के साथ 12 घंटे तक वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी. भेदभाव से पीड़ित अछूतों की इस युद्ध के प्रति दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महार रेजिमेंट के ज्यादातर सिपाही बिना पेट भर खाने और पानी के लड़ाई के पहले की रात 43 किलोमीटर पैदल चलकर युद्ध स्थल तक पहुंचे. यह वीरता की मिसाल है. इस युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक चौकोर मीनार बनाया गया है, जिसे कोरेगांव स्तंभ के नाम से जाना जाता है. यह महार रेजिमेंट के साहस का प्रतीक है. इस मीनार पर उन शहीदों के नाम खुदे हुए हैं, जो इस लड़ाई में मारे गए थे. 1851 में इन्हें मेडल देकर सम्मानित किया गया.

दलित-आदिवासी समाज को अपने पूर्वज उन 500 महार सैनिकों को नमन करना चाहिए क्योंकि इस युद्ध में पेशवा की हार के बाद पेशवाईखतम हो गयी थी और अंग्रेजोंको इस भारत देश की सत्तामिली. इसके फलस्वरूप अंग्रेजोंने इस भारत देश में शिक्षणका प्रचार किया, जो हजारों सालों से बहुजन समाज के लिए बंद था. इसके उपरांत महात्मा फुले पढ़ पाएं और इस देश की जातीगत व्यवस्था को समझ पाएं. अगर महात्मा फुले न पढ़ पाते तो शिवाजी महाराज की समाधि कौन ढूंढ़ता. अगर महात्मा फुले न पढ़ पाते तो सावित्री बाईकभी इस देश की प्रथम महिला शिक्षिकान बन सकती थी. सावित्री बाई के अशिक्षित रहने की स्थिति में इस देश की महिलाएं कभी न पढ़ पाती, शाहू महाराज कभी आरक्षण नहीं दे पातें, और बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर भी नहीं पढ़ पातें. आप यह समझ सकते हैं कि अगर बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर नहीं पढ़ पाते तो दलितों-आदिवासियों की स्थिति आज क्या होती. इसलिए जिस तरह बाबासाहेब आम्बेडकर प्रतिवर्ष 1 जनवरी को कोरेगांव जाकर उन वीर दलितों का नमन किया करते थे, हमें भी उन वीरों के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करनी चाहिए और अपने पूर्वजों के शौर्य को याद कर गौरवान्वित होना चाहिए.””””
News Input  National Dastk

अब सवाल यह है  की आज  ब्राह्मण  जो  की सत्ता पर काबिज  है उसको इस दिवस  के मनाने से  परेशानी  इसलिए है क्योकि  ब्राह्मणों की शर्मनाक हार थी और जिस समाज को ये लोग जूते के निचे रखना चाहते  थे आज वो अपना कोई विजय  दिवस कैसे मना सकता है ??

कमाल की बात है आज भी ब्राह्मण आतंकवादी की तरह काम कर रहा है और अपने आपको देशभक्त कहता है और इस देश के मूलनिवासी  को देशद्रोही , ये वो लोग है जो गजनी से लेकर बाबर तक के भारत पर हमले में साथ थे
सबसे पहले भारत में बाहरी आक्रमणकारी सन्712 में मोहम्मद बिन कासिम आया था उसको लाने वाला और भारत की भौगोलिक जानकारी देने वाला एक "ब्राह्मण " था

जो कासिम का मंत्री बना और कासिम को सिंध में पहली बार विजय दिलवाई । उसके बाद मोहमद गजनी आया और मोहम्मद गजनी का सेनापति तिलक भी "ब्राह्मण " था ।
उसके बाद बाबर आया बाबर का सेनापति रैमीदास भी "ब्राह्मण" था ।
उसके बाद अंग्रेजो को भारत भूमि पर लाने वाले भी"ब्राह्मण " था ।
शहीद राजा नाहरसिंह को फांसी देने वाला गंगाधर कौल भी "ब्राह्मण "था ।
अंग्रेजों की बंदूकों में कारतूसों के लिए गाय की चर्बी सप्लाई करने वाला भी"ब्राह्मण" था ।

शहीद भगतसिंह के विरुद्ध गवाही देने वाला सोहनलाल वोहरा भी"ब्राह्मण " था । जाटों को लाहौर उच्चन्यायालय में शूद्र घोषित करवाने वाले भी"ब्राह्मण" था । गुरनाम सिंह आयोग की रिपोर्ट जिसके तहत जाटों को आरक्षण दिया गया, उसको रद्द करवाने वाले भी"ब्राह्मण" था । यानी भारत को गुलाम बनान ेवाला "ब्राह्मण" मुगलो के आगे मंत्री संतरी
बनने वाले ये बीरबल ब्राह्मण था और हमारे दिलों में हमेशा मुस्लिमो के प्रति नफरत भरते रहे और खुद मुश्लिम अक्रान्ताओ के दोस्त बने रहे ऐसा क्यो ??

और आज ये कहते है की दलित अपना इतिहास न जाने  और अपने विजय पर्व न बनाए  अब मीडिया इस बात को  तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहा है कि दलित ब्रिटिश  आर्मी की जीत का  जश्न मना रहे है जबकि हकीकत  यह है की   इस लड़ाई ने ही शुद्रो को  इज्जत से जीने की राह दिखाई  और इसी के बाद  ही ऐसे कानून आने शुरू  हुए  जिसमे दलितों  को  आम आदमी के अधिकार  मिलने लेगे शिक्षा मिलने लगी   बस  इसी  बात से ब्राह्मणों  को परेशानी  है इसीलिए उन्हें अंग्रेजो से भी नफरत है की उन्होंने शुद्रो  को समान कैसे बना दिया