जन उदय यह बात
सबको मालूम होनी चाहिए कि आरक्षण कोई गरीबी
उन्मूलन प्रोग्राम नहीं बल्कि
सत्ता में उन सभी समाजो के लिए प्रतिनिधितिव की वावय्स्था है जो लोग
सदीओ से वंचित रहे है . दूसरा यह प्रतिनिधितिव भी कोई भीख
नहीं बल्कि १९३२ के कम्युनल अवार्ड में गई वाव्स्था है जिसके जरिये बाबा
साहेब चाहते तो अपना एक अलग राज्य भी बना
सकते थे , अगर हम इस अवार्ड को ज़रा गौर से
देखे तो यह दलितों के लिए प्रतिनिधितिव के साथ साथ दलित बाहुल्य क्षेत्रो
को एक ऑटोनोमी भी प्रदान करता है जिसमे
किसी सवर्ण का कोई दखल नहीं
था . लेकिन गांधी के धूर्तता के चलते
बाबा साहेब ने १९४२ के पूना पैक्ट
में आरक्षण की वाव्स्था को स्वीकार कर लिया . और इन्ही बाबा साहेब ने १९५६ में ओ
बी सी समुदाय यानि अति पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण न मिलने के
कारण अपने पद से इस्तीफा
दिया .
कमाल की बात आजादी के इतने साल बाद भी केवल
समाज नौकरी , राजनीती हर जगह पर
केवल और केवल ब्रह्मण विरजमान है
यहाँ तक की ब्राह्मणों ने उन
सवर्णों को भी ठगा है जो इसके हर कृत्य में
ब्राह्मणों का साथ देते है यानी
ब्रह्मणों ने सवर्णों
का भी हिस्सा चट कर लियी .
लेकिन
एक बात यहाँ पर बहुत जरूरी है
की ब्राह्मणवाद के जहर के चलते एस सी एस टी ओ बी सी
ब्राह्मणों के बनाए कुचक्र यानि हिन्दू –मुस्लिम में बंटे
रहे और ब्राह्मणों का हथियार बन
मुस्लिम से लड़ते रहे और इस लड़ाई
के शोर में यह भूल ही गए कि ये लोग
अशिक्षित रह गए अन्धविश्वासी रह गए , गरीब राग गए कभी इनके बच्चे गे
नही पाए . जैसे ही ओ बी सी को ज़रा
सी मानसिक फुर्सत हुई ब्राह्मण इन्हें यह ख कर उलझाते रहे की इनके हिस्से का सारा मल दलित
खा गये , जब की आंकड़े इसके
उल्ट है
और
स्थिथि यह है कि
जब इन ओ बी सी समुदाय को आरक्षण मिलने
की बात चल रही
है और
ये समुदाय के लोग खुद जागृत हो रहे ही तो ब्राह्मणों ने ओ
बी सी आरक्षण के खिलाफ भी जंग छेड़
दी है , कमाल की बात है कैसे
धूर्त ही ये ब्राह्मण
लोग जिस ओ बी सी और दलित समुदाय
को आगे क्र ये मुस्लिम से लड़ते रहे
और अपनी जान बचाते रहे
यानी ब्राह्मण ओ बी सी समुदाय के
अहसानों का बदला चुकाने के बजाय इनके खिलाफ जंग
छेड़ रहे ही . यानी इनसे बड़ा
तो धूर्त कोई हो
नहीं सकता .. क्या अब ओ बी सी
समुदाय अब हिन्दू नहीं है और अगर
हिन्दू है तो ब्राह्मण
अपने हितैषी हिन्दू भाइओ के खिलाफ क्यों जंग छेड़े है ???
इसका मतलब तो यह हुआ की
ब्राह्मण न तो
हिन्दू है न भारतीय
जो वक्त पढने पर हिन्दू
हिन्दू चिल्ला कर अपनी जान बचाने के लिए इन दलित समुदाय
को आगे बुलाता है और
जब काम निकल जाता है
तो इनके खिलाफ जहर उगलता है
इन्हें आपस में लड्वता है .
खैर इन
ब्राह्मणों की और तह
तक जाना
बहुत जरूरी है जानिये
निचे दिए गए
तथ्य जो साबित करते
है की ब्राह्मण
हिन्दू नहीं और न
ही भारतीय है
हिन्दुओ पर जितना संकट मुस्लिम साम्राज्य की दो
सदियों के दौरान था, वैसा संकट अंग्रेजी शासन के दौरान नहीं था.
मुस्लिम साम्राज्य में ब्राह्मण और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के सामने कोइ संकट नहीं
था, किन्तु शुद्र(ओबीसी)-अतिशुद्र(एससी-एसटी) पर संकट था, देश
की 90 % जनसंख्या संकट में थी. शुद्रो-अतिशुद्रो में से
धर्मान्तरण करके कितने ही लोग मुस्लिम बन गए थे, फिर भी
महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने कोई राष्ट्रिय संगठन नहीं बनाया.
अंग्रेजी शासन में मुस्लिम शासक़ भी नियंत्रण
में आ गए थे. मुस्लिम शासको की ओर से कोई संकट नहीं था, किन्तु
शुद्रो-अतिशुद्रो में शिक्षा के आरंभ के साथ जागृति पैदा होने से ब्राह्मणवादी
व्यवस्था की पहचान शत्रु रूप में हो जाने से ब्राह्मणवाद के सामने संकट आरंभ हुआ, संकट
से निपटने के लिए महाराष्ट्र के कुछ कट्टर जातिवादी ब्राह्मणों को संगठित होने की
आवश्यकता हुई.
(1) महाराष्ट्र में यदि महात्मा ज्योतिबा फूले
जन्मे न होते तो महाराष्ट्र में हिंदु महासभा या आर.एस.एस. का जन्म न हुआ होता.
छत्रपति शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मंडल में
सात ब्राह्मण मंत्री थे. छत्रपति शिवाजी के शासन में ब्राह्मणों को इतना दान दिया
जाता था, जितना दान देश के एक भी हिंदु राजा के राज में
दिया नहीं जाता था. शिवाजी के बाद उनका साम्राज्य ब्राहमण पेश्वा के हाथ में चला
गया. पेश्वा शासन और कोल्हापुर, नागपुर, इन्दोर, ग्वालियर
जैसे मराठा राजाओ के शासन में ब्राह्मणों के धर्म के व्यवसाय का पुरजोर में विकास
हुआ. विपुल दान दक्षिणा से महाराष्ट्र के ब्राह्मण मालामाल हो गए.
अंग्रेजी शासन के आने से ब्राह्मण पेशवा शासन
समाप्त हो गया. महाराष्ट्र और देश में क्षत्रिय-राजपूत राजाओ को छोडकर अन्य
गेर-ब्राह्मण लोगो को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार पौराणिक ब्राह्मण धर्म के
अनुसार नहीं था. पौराणिक ब्राह्मण शास्त्रों और मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के
अनुसार शिक्षा मात्र जन्मजात ब्राह्मणों के लिए आरक्षित थी. शिक्षा का अर्थ था
ब्राह्मण धर्मग्रंथो की पढाई, जो कि संस्कृत में लिखे थे. संस्कृत
केवल जन्मजात ब्राह्मणों के लिए आरक्षित भाषा थी. ब्राह्मण का वचन अर्थात ईश्वर का
वचन, ब्राह्मण यानी पृथ्वी का स्वामी, पृथ्वी का देवता
ऐसी जूठी धारणा जनमानस में द्रढता पूर्वक शास्त्र और दंड की व्यवस्था के साथ
स्थापित कर दी गई थी.
ब्रिटिश शासन में सरकारी पाठशालाओ का आरंभ होने
से ब्राह्मण के बच्चो के साथ गेर-ब्राह्मणों के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करने लगे.
अछूत मानी गई जातियो के बच्चो को आरंभ में प्रवेश मिला नहीं था किन्तु, शुद्र
वर्ण की कुणबी, माली, अहीर, कुम्भार, तेली, तम्बोली, सोनी, गडरिया, लोधी, कुशवाहा
जैसी जातियों के बच्चे शालाओ में शिक्षा पाने लगे थे. कट्टरपंथी ब्राह्मणों के लिए
ये असह्य था कि गेर-ब्राह्मण बच्चे
, ब्राह्मण जाति
के बच्चों के साथ बरोबरी कर के शिक्षा प्राप्त करने मे स्पर्धा करे.
1848 में शुद्र वर्ण कि माली जाति के ज्योतिबा फूले
ने उदारमत वाले ब्राह्मण साथियों के सहयोग से शुद्रों-अतिशुद्रो के लिए पाठशाला
आरम्भ कियी. स्त्रियों की शिक्षा के लिए कन्याशाला शुरू कियी. शिक्षा पाने का
अधिकार केवल ब्राह्मण पुरुषों को है, ऐसी झूठी धारणा
को धर्म मानने वाले पुराणपंथी कट्टर ब्राह्मणों ने फूले का उग्र विरोध किया.
शुद्रों और स्त्रियों को शिक्षा देने से धर्म रसातल में चला जाएगा, ऐसा
कोहराम उन्होंने मचाया था.
उदार ब्राहमणों में से कुछ निडर ब्राहमणों ने
कट्टरपंथियों की पर्वाह नहीं करते हुए जोतिबा फूले का समर्थन किया. कुछ छिपे तोर
पर सहायता भी करते रहे. कट्टरपंथियों ने जोतिबा फूले की हत्या करने के लिए हत्यारे
भी भेजे थे.
धर्म के नाम पर पुरातनपंथी ब्राह्मणों द्वारा
प्रेरित ऊँच-नीच की वर्णव्यवस्था और कर्मकांडो की ठग विद्या से लोगो के धर्म के
नाम पर होते रहे शोषण के विरुद्ध जोतिबा फूले ने आवाज उठाई. उन्होंने ‘गुलामगीरी’, ‘किसानो
का कोड़ा’, ‘ब्राह्मणों की चालाकी’, ‘तृतीय
रत्न’ जैसी पुस्तके भी लिखी.
24 सितम्बर 1873 में उन्होंने ‘सत्यशोधक
समाज’ नाम का संगठन स्थापित करके सामाजिक समानता के सत्य धर्म आन्दोलन का
आरम्भ किया. ‘सत्यशोधक समाज’ के सिद्धांत
निम्नलिखित थे.
1. ईश्वर एक ही है. वह किसी गुफा, पर्वत, नदी, नाले, या
पंडित, पुरोहित के मंदिर में बंध नहीं है, वह सर्वव्यापी
है.
2. ईश्वर हिंदु, मुस्लमान, ब्राह्मण, अछूत
आदि भेदभाव नहीं करता, उसे सभी मानव सामान रूप से प्रिय है.
3. सभी लोगो को ईश्वर की आराधना करने का अधिकार है
और उसके लिए किसी दलाल की जरूरत नहीं. ईश्वर को आत्मशक्ति से ही प्रसन्न कर सकते
है.
4. मानव जाति से नहीं, गुणों
से श्रेष्ठ होता है. ऊँची जाति में जन्म लेने से मानव श्रेष्ठ और नीची जाति में
जन्म लेने से मानव नीचा होता है, ऐसी झूठी धारणा पंडितो-पुरोहितो ने
फैलाई है.
5. कोई भी ग्रंथ ईश्वर रचित नहीं है.
6. ईश्वर साकार रूप से जन्म नहीं लेता.
7. पूर्वजन्म की धारणा, कर्मकांड, जप-तप
अज्ञान के मूल है.
सत्यशोधक समाज ने निम्नलिखित कार्यों को अपना
लक्ष्य बनाया.
-ब्राह्मण शास्त्रों की मानसिक तथा धार्मिक
गुलामी से लोगो को मुक्त करना.
-पुरोहितो द्वारा किए जाने वाले शोषण को रोकना.
-अछूतो का उद्धार करके छुआछूत को दूर करना.
-महिलाओ के मानव अधिकार की रक्षा करना.
-गरीब बच्चो तथा अंधे-विकलांगो के साथ सहानुभूति
रखना.
-सत्य आचरण तथा निष्ठा को अपनाना.
50 से 60 लोगो कि
उपस्थिति में “सत्यशोधक समाज” की स्थापना हुई.
उसका प्रचार-प्रसार मुंबई, नासिक, पुणे के आसपास
की परिधि में बढता गया. कट्टरपंथी ब्राह्मणों के लिए यह बहुत बड़ी चुनोती थी. धर्म
उनका धंधा था, उनके धंधे पर सत्यशोधक समाज का प्रहार होने से
महाराष्ट्र के ब्राह्मणों को यह निरंतर अहेसास होता रहा कि, उनका
धर्म का धंधा बंध हो जाएगा, जन्मजात श्रेष्ठता की स्थापित मान्यता
समाप्त हो जायेगी, भूदेव रूप का जन्मजात दर्जा खत्म हो जाएगा.
(2) ब्रिटिश शासन में ब्राह्मणों के बढे हुए
प्रभुत्व के सम्बन्ध में जाने माने समाजशास्त्री रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक “भारतीय
राजनीति में जातिवाद” में लिखा है कि, “क्योकि
ब्राह्मण शिक्षा परिसरों, व्यवसायों में प्रविष्ठ हो चुके थे
इसीलिए सभी स्थानों पर उन्होंने अपने गिरोह बना लिए थे. इनसे गेर-ब्राह्मणों को
बाहर रखा गया. 1892 से 1904 के बीच भारतीय
सिविल सेवाओ में सफलता पानेवाले 16 प्रतियाशियो में 15
ब्राह्मण थे. 1914 में 128 जिलाधिकारियों
में से 93 ब्राह्मण थे.”
ऐसे ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के सामने सामाजिक
समानता स्थापित करने के लिए, 26, जुलाई 1902 के दिन छत्रपति
शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य की सेवाओ में 50% स्थान
शुद्र(ओबीसी) तथा अतिशुद्रों(एसटी-एससी) के लिए आरक्षित करने के आदेश जारी किए.
इससे सत्तामें पिछड़े वर्गों की सामाजिक भागीदारी आरम्भ हुई.
शासन के लिए अपनी जाति को जन्मजात रूप से योग्य
और श्रेष्ठ मानने वाले और शुद्रों-अतिशुद्रों को जन्मजात रूप से अयोग्य और नीच
माननेवाले ब्राह्मणों ने सामाजिक ढंग से शाहूजी महाराज के 50%
आरक्षण का विरोध किया. बाल गंगाधर तिलक़ ने अपने अखबार “केसरी” में
आरक्षण का विरोध किया.
महात्मा जोतिबा फूले स्थापित सत्यशोधक समाज की
कोल्हापुर शाखा 1911 में प्रारंभ हुई. छत्रपति शाहूजी महाराज ने
कार्यालय के लिए एक भवन दिया और हरीभाऊ चव्हाण तथा धनगर(रेबारी) जाति के ढोण
गुरुजी को नोकरी से मुक्त करके सत्यशोधक समाज के काम में लगाया.
(3) केरल-मद्रास में 1884 से
1928 तक की अवधि में नारायण गुरु ने शुद्र (ओबीसी) अति शुद्र(एस.सी./एस.टी.)
में सामाजिक समानता का आन्दोलन चलाया. उनके आंदोलन में बिना मूर्ति के मंदिर बनाने
और मंदिरों में शिक्षा देने के कार्यक्रम को प्रधानता दी गई. चार वर्ण की
ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सामने नारायण गुरु ने समानता का सूत्र दिया “एक
ही जाति मानव जाति.” ब्राह्मणवादी व्यवस्था के 33
करोड देवता के सामने नारायण गुरु ने सूत्र दिया, “एक ही इश्वर.” ब्राह्मणवादी
अनेक संप्रदायों के सामने नारायण गुरु ने एक सूत्र दिया, ‘एक
ही धर्म मानव धर्म’ ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध नारायण गुरु
के आन्दोलन से ब्राह्मणों के धर्म के धंधे पर खतरा खड़ा हुआ.
(4) 1921 में संयुक्त मद्रास प्रान्त की जस्टिस
पार्टी की सरकार ने गेर-ब्राह्मण शुद्रो, अतिशुद्रो को
सांप्रदायिक कोटे से सेवाओ में आरक्षण देने के कदम उठाये. ईस वर्ष में मैसूर राज्य
के राजा ने शुद्रातिशुद्र जातियो को पिछड़ी जातियों के रूप में मान्यता दी और
आरक्षण की घोषणा की. ब्राह्मणों के कार्यपालिका पर जमे हुए प्रभुत्व के सामने
चुनोतिया बढ़ी.
1925 में ई. वी. रामासामी पेरियार ने मद्रास
प्रान्त में प्रभूत्व जमाए हुए ब्राह्मणवाद के सामने ‘आत्मसन्मान
आन्दोलन समिति’ की स्थापना करके शुद्रो-अतिशुद्रो का मुलनिवासी
द्रविड आन्दोलन आरंभ किया.
(5) इंग्लेंड में मताधिकार केवल करदाताओ तथा
शिक्षितों को ही था. इसके खिलाफ सभी को मताधिकार के लिए 1917
में आन्दोलन शुरू होते ही इंग्लेंड सरकार ने एक क्रन्तिकारी निर्णय लेकर 1918
में 21 वर्ष की आयु के मजदूरो और निरक्षरो समेत सभी को मताधिकार दे दिया.
भारत में भी ब्रिटिश शासन के अधीन प्रान्तों को
स्वराज्य देने की प्रक्रिया चल रही थी. इंग्लेंड में आम जनता को जो अधिकार दिए
जाते थे, वैसे अधिकार भारत में भी लागु होने वाले थे.
भारत में आने वाले वर्षों में मताधिकार मिलेगा तो शुद्रो-अतिशुद्रो को भी मिलेगा. 3 % ब्राह्मण
जनसंख्या में से कट्टरपंथी ब्राह्मण राजकीय नेतृत्व नहीं कर शकेंगे ऐसी चुनौती भी
उनके सामने आ रही थी.
1919 में भिन्न-भिन्न पक्षो और समुदायों ने अपने
प्रतिनिधियों के माध्यम से ‘साऊथ बरो’ कमिटी
के सामने निवेदन किया था. डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर तथा कर्मवीर शिंदे ने अछूतो की
दुर्दशा के संबंध में ज्ञापन देकर अछूतो के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र तथा आरक्षित
सीटों की मांग की. इसी वर्ष शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य में अश्पृश्यता के
अंत करने का आदेश जारी कर के उन्हें सार्वजनीक़ स्थलों के उपयोग के अधिकार प्रदान
किए.
(6)1920 में बालगंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद
महाराष्ट्र के पुरातनपंथी ब्राह्मणों के लिए महात्मा गाँधी तथा उदार ब्राह्मणों के
साथ काम करना कठिन था. सत्य शोधक समाज के नेता जाधव और जवलकर की ‘देश
के दुश्मन’ नाम की पुस्तक में ब्राह्मणवाद के समर्थक बाल
गंगाधर तिलक और विनायक सावरकर को देश के दुश्मन बताए थे. ईस पुस्तक को जप्त किया
गया था. 1920 में पुस्तक की जप्ती के खिलाफ न्यायलय से
मुक़दमा जित कर डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने ईस पुस्तक को सार्वजनिक करवाया.
(71923 में ब्रिटिश सरकार ने एक आदेश निकला,-“कोई
भी शिक्षा संस्था जो सरकार से अनुदान लेती है, उसमें अछूतो(sc) को
प्रवेश देने से इन्कार करनेवाली संस्था का अनुदान बंध कर दिया जाएगा.”
17 सितम्बर 1923 में मुंबई
सरकार के वित् मंत्रालय ने एक आदेश निकाला, जिसमे सरकारी
कार्यालयों और संस्थाओ में नीचे के वर्ग में जहा तक वंचित जातियो के जरिए खाली
स्थान भरने में नहीं आते, तब तक उन स्थानों पर ब्राह्मणों और
उनकी समकक्ष जातियो की भर्ती नहीं की जाए, ऐसा प्रतिबंध
आया.
(8) ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय
एवं वैश्य ये तीन वर्ण यज्ञोपवित पहन सकते थे. शुद्रो-अतिशुद्रो और स्त्रियों को न
तो यज्ञोपवित धारण करने का अधिकार था न शिक्षा ग्रहण करने का.
अंग्रेजी शासन में शुद्रो-अतिशुद्रो में शिक्षा
पाना तो आरंभ हुआ, किन्तु उच्च जतियों की बराबरी के लिए यज्ञोपवित
धारण करने का आन्दोलन भी उत्तरप्रदेश और बिहार के अहीरों- यादवो ने आरंभ किया.
बिहार के मुंगेर जिले के लखीसराय थाना के क्षेत्र के लाखुचक गांव में सामूहिक रूप
से यज्ञोपवित धारण करने का संमेलन अहीरों ने आयोजित किया. ब्राह्मणवादी ऐसा किस
प्रकार सहन कर सकते थे?
यादवो के संमेलन पर रामपुर के भूमिहार-जमीदार
नारायण सिंह ने हाथी पर सवार होकर सेंकडो की हथियार बंध सेना के साथ आक्रमण किया.
यादवो को ऐसा होने की आशंका थी और उन्हों ने उस बात की जानकारी लखीसराय थाने में
दे दी थी. हजारों की संख्या में एकत्रित हुए यादवो ने अपनी लाठियों से प्रतिकार
करके भूमिहारो की सेना को डेढ़ मिल पीछे खदेड़ दिया. एस.डी.एम., एस.पी., पुलिस
तथा सेना के जवान वहा आ पहुचे. उन्हों ने भी भूमिहारो को गोली चलाने की चेतावनी
देकर रोका. ईस घटना में जिला कलेक्टर एवं जिला मजिस्ट्रेट ने भूमिहार नेता नारायण
सिंह पर 16 हजार रूपये का दंड किया.
(9) उतरप्रदेश में रायसाहब रामचरण की अध्यक्षता में
शुद्र-अतिशुद्रो का संगठन ‘आदि हिंदु समाज’ 1919
में लखनऊ में स्थापित हुआ. 1925 में साइमन कमिसन देश के पिछडे वर्गों
की समस्याओ को जानने के लिए लखनऊ आया तब रायसाहब रामचरण तथा शिवदयाल सिंह चौरसिया
ने फ्रेंचाइज़ कमिटी के नियुक्त सदस्य के रूप में शुद्रो-अतिशुद्रो की समस्याओ के
संबंध में कमीशन के समक्ष पक्ष प्रस्तुत किया था.
‘आदि हिंदु समाज’ शुद्र वर्ण की
जातियो को जागृत करता था और उसके जैसे ही एक दुसरे संगठन ने उत्तरभारत में अछूतो को
जागृत करना आरम्भ किया. स्वामी अछुतानंद ने 1923 में ‘ऑल
इंडिया आदि हिंदु महासभा’ की स्थापना की थी. देश के भिन्न-भिन्न
प्रदेशो के शहरो अलाहाबाद, लखनऊ, कानपूर, अल्मोड़ा, जयपुर
तथा अमरावती में संमेलन करके उन्होंने देश के अछूतो में जागृति का प्रवाह प्रवाहित
किया.
ऊपर बताये अनुसार सारे देश में गेर- ब्राह्मण
शुद्र-अतिशुद्र जातियों में 1873 से 1925 की समयावधि में
सामाजिक समानता हेतु आन्दोलन फ़ैल रहा था. ब्राह्मण जाति के सामाजिक प्रभुत्व के
विरुद्ध संकट बढ़ रहे थे, तब राष्ट्रिय स्तर पर ब्राह्मण जाति के
स्थापित किए हुए हितों की रक्षा और संवर्धन के लिए एक भी संगठन नहीं था.
ब्राह्मणवादी स्थापित हितों के सामने सबसे बड़ी
आवाज 1873 से 1925 के बीच महाराष्ट्र के महात्मा जोतिबा फूले, छत्रपति
शाहूजी महाराज और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा उठाई जाती रही. 1920 से
1924 तक की तत्कालीन महाराष्ट्र की सामाजीक़ स्थिति का वर्णन संघ के
स्वयंसेवक ना.ह.पालकर लिखित ‘डॉ. हेडगेवार’ जीवन
कथा के पृष्ठ-213 पर मिलती है. इसमें लिखा है,
“ईस समय महाराष्ट्र में सभी ब्राह्मणों, गेर-ब्राह्मणों
के बीच बहुत कटुता व्याप्त हो गई थी. इससे मुसलमानों को आशा थी की, ईस
कटुता का लाभ उठाकर हिंदु संगठन की तयारी करनेवाले तथा मुसलमानों का आर्थिक
बहिष्कार करनेवाले उजले लोगो (ब्राह्मणों) को अच्छा बोधपाठ पढाया जा सकेगा. कारण
यह था की, कमसे कम उस समय तो गेर-ब्राह्मणवादी और
मुस्लमान दोनों ही उजले (ब्राह्मण) वर्ग के विरोध में खडे थे.”
ऊपर वर्णित स्थिति और संयोगो ने संघ की स्थापना
के लिए महाराष्ट्र के कट्टर ब्राह्मणों को क्या प्रेरित नहीं किया होगा?
वैदिक ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति की चार वर्ण
की व्यवस्था की मान्यता से हट कर ‘सत्य शोधक समाज’ द्वारा
आरंभ की गई सामाजिक समानता की जुम्बेश को छत्रपति शाहूजी महाराज तथा डॉ. बाबासाहब
अम्बेडकर द्वारा सतत नेतृत्व मिलता रहा था. ये कट्टरपंथी ब्राहमणों के लिए सहन न
हो सके ऐसी स्थिति थी.
देश में वैचारिक हिसाब से ब्राह्मण दो भाग में
बंट चुके थे. पुराणपंथी ब्राह्मण जो वैदिक संस्कृति में किसी भी प्रकार के
परिवर्तन के विरोधी थे. दूसरे उदार ब्राह्मण थे जो सामाजिक समानता तथा सामाजिक
परिवर्तन को स्वीकार और समर्थन करते थे.
महाराष्ट्र में कट्टर पुराणपंथी ब्राह्मणों का
नेतृत्व बालगंगाधर तिलक करते थे. जब की उदार ब्राह्मणों का नेतृत्व गोपाल कृष्ण
गोखले करते थे. दोनों ही गुट कोंग्रेस से जुड़े हुए थे. राष्ट्रिय स्तर पर गोपाल
कृष्ण गोखले और मोतीलाल नेहरु जैसे उदार ब्राह्मण नेता महात्मा गाँधी के साथ थे.
जब की डॉ. हेडगेवार जैसे कितने ही पुराणपंथी ब्राह्मण कार्यकर्ता बाल गंगाधर तिलक
के साथ थे. तिलक का सपना अंग्रेजी शासन को हटाकर देश में पेश्वाशाही की
पून:स्थापना का था.
डॉ. हेडगेवार और सावरकर दोनों बाल गंगाधर तिलक
के अनुयायी थे. गुजराती बनिया गांधीजी की बढती जाती लोकप्रियता से परेशान तिलक ने
अपने समर्थक ब्राह्मणों से कहा था की, भारत के
राष्ट्रिय आन्दोलन का नेतृत्व गेर-ब्राह्मण के हाथो मे जाने से रोकना चाहिए. देश
में, व्यापक स्तर पर प्रदेशो में शुद्रो-अतिशुद्रो के उत्थान हेतु संघर्ष
शुरू हो गए थे. ऐसे संयोगो में ब्राह्मणवाद के सामने सीधी चुनौती आगे बढ़ रही थी.
ऐसी स्थिति में डॉ. हेडगेवार तथा तिलक के
अनुयायी पुरातनपंथी ब्राह्मणों के सामने दो ही विकल्प थे. एक विकल्प देश की आझादी
की लड़ाई लड़नी और कोंग्रेस में रहकर उदार ब्राह्मण नेताओ के नियंत्रण में काम करना
था. दूसरा विकल्प अपनी ब्राह्मण जाति के स्थापित हितों की रक्षा करने के हेतु
महाराष्ट्र के पुरातनपंथी ब्राह्मणों को संगठित करके सामाजिक परिवर्तन को रोकना
था. डॉ. हेडगेवार ने देश की स्वतंत्रता से अधिक अपनी ब्राह्मण जाति के हित को
महत्व दिया.
संघ के भाष्यकार और दूसरे ब्राह्मण सर संघचालक
गोलवलकर ने डॉ. हेडगेवार की ऐसी भूमिका को स्पष्ट किया और ब्राह्मण स्वयंसेवकों को
कहा की,-“हमें अपनी Race (जाति वंश) का
विचार करना चाहिए. Cause of the race is cause of the nation. तुम
जाति के कार्य को बडा समजो, अपने को बडा न समजो.”
-‘तीन ब्राह्मण सरसंघ चालक राष्ट्रवादी या
जातिवादी?’ में से.