आज़ाद भारत में अंग्रेज़ों की जीत का जश्न
क्यों? इस सवाल के जरिये जेनेऊ धारी ब्राम्हणवाद को फ़ैलाने वाली मीडिया और
ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग भीमा कोरेगांव की ऐतिहासिक लड़ाई को अंग्रेज़ों की
लड़ाई साबित करने की साज़िश कर रहे हैं. वो पूछ रहे हैं कि 200
साल पहले अंग्रेज़ों की जीत का जश्न मनाकर दलित देश विरोधी काम क्यों कर रहे हैं?
असल
में ये लोग हकीकत को बड़ी ही चालाकी से छुपा रहे हैं. क्योंकि अगर भीमा कोरेगांव
जैसी ऐतिहासिक लड़ाई आपके लिए सिर्फ अंग्रेजी सेना की जीत है और उसपर गर्व करने का
आपके पास कोई कारण नहीं है तो फिर सवाल है कि 42 मीटर ऊंचा
इंडिया गेट आपके लिए गर्व का प्रतीक क्यों है?
इंडिया गेट प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की
तरफ से लड़कर शहीद होने वाले भारतीय सैनिकों की याद में बनाया गया था. 13,000 से
ज्यादा शहीदों के नाम इंडिया गेट पर उकेरे गये हैं. ये सैनिक फ्रांस, मिडिल
ईस्ट, अफ्रीका और अफगानिस्तान जैसे मोर्चों पर लड़े थे जिनका मकसद ना भारत
को आज़ाद कराना था औऱ ना ही अंग्रेजों से विद्रोह करना, तो बताईये आप
आज़ाद भारत में इंडिया गेट को कैसे देखते हैं?
आप हाइफा युद्ध को कैसे देखते हैं?
23 सिंतबर 1918 को विदेशी
सरज़मीं पर लड़ी गई हाइफा की ऐतिहासिक लड़ाई में भी तो भारतीय सैनिक अंग्रेज़ों की
तरफ से लड़े थे. क्या उन राजपूत जवानों की बहादुरी पर गर्व नहीं करना चाहिए?
तो
क्या दिल्ली के तीन मूर्ति चौक जिसे पहले हाइफा चौक कहा जाता था, वहां
से गुजरते हुए हमें सम्मान और जोश की अनुभूति नहीं करनी चाहिए? क्योंकि
ये सभी सैनिक तो अंग्रेज़ों के लिए लड़े थे.
सारागढ़ी की लड़ाई का क्या ?
12 सितंबर 1897 को खैबर
पख्तूनख्वा में लड़ी गई सारागढ़ी की लड़ाई को क्या कोई झुठला सकता है? ब्रिटिश
सेना के 21 सिख सैनिकों ने अफगान सेना के 10 हज़ार सैनिकों
के छक्के छुड़ा दिये थे. क्या उस वक्त इन 21 बहादुरों का
मकसद भारत की आज़ादी था? शायद नहीं, क्योंकि वो सब
तो ब्रिटिश सेना की नौकरी कर रहे थे. तो क्या आप इस लड़ाई को इतिहास के पन्नों में
दफना सकते हैं? क्या आपके लिए इस अदम्य साहस और वीरता की लड़ाई
में गर्व की कोई बात नहीं?
एक सवाल मंगल पांडे के बारे में भी
मंगल पांडे ब्रिटिश सेना के सिपाही थे. मज़े से
अंग्रेज अफसरों के हुक्म का पालन कर रहे थे. जब तक उनको मातादीन भंगी ने ये ताना
नहीं दिया कि ‘तु शूद्र से भेदभाव करता है लेकिन गाय के मांस
का बना कारतूस मुंह से फाड़ता है’ तबतक उन्हें ब्रिटिश सिपाही होने में
कोई दिक्कत थी ही नहीं. मंगल पांडे ने वैसे भी अपनी हिंदू धार्मिक भावना के आधार
पर विरोध किया था ना कि भारत मां की आज़ादी के लिए, तो क्या आप मंगल
पांडे गर्व करना छोड़ देंगे?फिर
आप भीमा कोरेगांव की लड़ाई को बदनाम करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? भीमा-कोरेगांव
की लड़ाई तो फिर भी मानवता के खिलाफ खड़े लोगों से आजादी के लिए लड़ी गई थी.
1 जनवरी 1818 को पुणे के पास
सिर्फ 500 महार सैनिकों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की 28 हज़ार सैनिकों
की फौज को बुरी तरह धूल चटा दी थी. ब्रिटिश सेना की महार रेजिमेंट के शौर्य और
अदम्य साहस जैसी मिसाल इतिहास में कहीं नहीं मिलती. पेशवा राज भारतीय उपमहाद्वीप
के इतिहास का सबसे क्रूरतम शासनकाल था. मराठों के साथ छल करके ब्राह्मण पेशवा जब
सत्ता की कुर्सी पर आये तो उन्होंने शूद्रों को नरक जैसी यातनाएं देना शुरू कर
दिया. पेशवा राज में शूद्रों को थूकने के लिए गले में हांडी टांगना जरूरी था. साथ
ही शूद्रों को कमर पर झाड़ू बांधना जरूरी था जिससे उनके पैरों के निशान मिटते
रहें. शूद्र केवल दोपहर के समय ही घर से बाहर निकल सकते थे क्योंकि उस समय शरीर की
परछाई सबसे छोटी होती है, परछाई कहीं ब्राह्मणों के शरीर पर ना
पड़ जाये इसलिये उनके लिए समय निर्धारित था. शूद्रों को पैरों में घुंघरू या घंटी
बांधनी जरूरी थी ताकि उसकी आवाज़ सुनकर ब्राह्मण दूर से ही अलर्ट हो जाये और
अपवित्र होने से बच जाये.
ऐसे समय में जब पेशवाओँ ने नागवंशी मूलनिवासियो
पर अत्यंत अमानवीय अत्याचार किये, उनका हर तरह से शोषण किया, तब
उन्हें ब्रिटिश सेना में शामिल होने का मौका मिला. ब्रिटिश सेना में शामिल सवर्ण
समाज के लोग शूद्रों से कोई संबंध नहीं रखते थे, इसलिये अलग महार
रेजिमेंट बनाई गई. महारों के दिल में पेशवा साम्राज्य के अत्याचार के खिलाफ
जबरदस्त गुस्सा था, इसलिये जब 1 जनवरी 1818 को
भीमा कोरेगांव में पेशवा सेना के साथ उनका सामना हुआ तो वो उनपर शेरों की तरह टूट
पड़े. सिर्फ 500 महार सैनिकों ने बाजीराव द्वितीय के 28 हज़ार
सैनिकों को धूल चटा दी और काट डाला. जाहिर सी बात है, जैसे हम हाइफा
और सारागढ़ी के युद्ध के वीरों की वीरता को नहीं झुठला सकते, उसी
तरह कोरेगांव के महार रेजिमेंट के जवानों के शौर्य को भी नहीं झुठलाया जा सकता.
1 जनवरी को इसी लड़ाई का 200वां
शौर्य दिवस था जिसे मनाने देश भर के लाखों बौद्ध सिख,मुस्लिम,लिंगायत,
मराठा,भीमा
कोरेगांव में जुटे थे.ये लड़ाई अन्याय,शोषण और अपमान के प्रतिरोध का प्रतीक
है जिसे युगों-युगों तक याद किया जाएगा. अंग्रेजों ने वीर महारों के याद में विजय
स्तंभ बनवाया जो आज लाखों बौद्ध के लिए प्रेरणा का प्रतीक है.आपको सवाल उन पेशवाई
गुंडों से पूछना चाहिए जो मूलनिवासियो के स्वाभीमान से जीने को बर्दाश्त नहीं कर
पा रहे.
Reality of Bheema
Koregaon , Brahman terror , Rss Conspiracy