जन उदय : अगर हम कहे शादी तो
हमारे दिमाग में एक तस्वीर उभर कर सामने आती है , जिसमे फेरे होते है पंडित
मन्त्र पढ़ते है , आदि आदि
यानी एक शब्द ने हमें एक संस्कृति के दर्शन करा दिए इसी तरह हम कहे निकाह तो हमें
इस्लामिक संस्कृति के दर्शन हो जाएंगे .. संस्कृति न सिर्फ हमारे रहने पहनने खाने पिने के ढंग को निर्धारित करती है बल्कि हमारे व्यक्तितिव का भी निर्माण करती है संस्कृति
में एक बात बहुत उपयोगी और
महत्वपूर्ण है वह यह है की इसमें
भूगोलिक स्थान का बहुत महत्व है जो संस्क्रती
को अलग रूप दे देता है जैसे उत्तर भारत के ब्राह्मण जहा मांस नहीं खाते
वाही पूर्व यानी ओड़िसा , बंगाल
और दक्षिण भारत के ब्राह्मण मांस मछली खाते है इसलिए हम कह सकते है खान पान केवल भूगोलिक
परिष्ठिथियो पर निर्भर
करता है .
व्यक्तितिव के निर्माण में
संस्कृति की बहुत बड़ी भूमिका रहती है जैसे अगर हम ब्राह्मण संस्कृति का सही ढंग से जायजा ले तो
हम पायंगे की ब्राह्मण संस्कृति जिसे हम १८१८ के बाद से हिन्दू
धर्म के नाम से भी जानते है क्योकि
१८१८ से पहले हम हिन्दू नहीं
थे सिर्फ जातिओ का एक पुलिंदा था , इस संस्कृति में व्यक्ति डरपोक , दब्बू , मानसिक रूप
से विकृत अन्धविश्वासी और इतना दब्बू
होता है कि उसे अपने आप पर विशवास
ही नहीं होता कि वो कुछ कर सकता है , क्योकि इस संस्कृति का पालन करने से यही होता है
अब हम अगर हम इस्लामिक व्यक्तित्व
की बात करे तो इसमें नमाज , रोजा ,
जकात आदि की विवेचना जब हम करते है तो
संस्कृति के अनुसार ये लोग अनुशाषित
,परोपकारी , निर्भय , शांत होने चाहिए ,
लेकिन मुसलमानों में आतंकवादी , ब्राह्मणों में आतंकवादी का होना इस बात का
सबूत है की ये लोग अपनी अपनी संस्कृति से अलग होते है
संस्कृति और व्यक्तिव के सम्बन्ध में और गहन
रूप से चर्चा करने के लिए हम इसे समझते है
संस्कृति मुख्यतः मनुष्यों द्वारा अर्जित भौतिक
व् अभौतिक वस्तुओ का का समग्र है.
संस्कृति को परिभाषित करते हुए टायलर कहते है –
“व्यापक अर्थ में संस्कृति वह जटिल समग्र है
जिसमें समाज के एक हिस्से के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित ज्ञान,विश्वास,कला,नैतिकता,विधि-विधान,रीति-रिवाज
के अलावा उसकी अन्य क्षमताए एवं आदतें शामिल हैं.”
इस प्रकार संस्कृति का निर्माण मनुष्यों द्वारा
ही होता है साथ ही साथ मनुष्य इस पर निर्भर भी है.
संस्कृति की व्यापक चर्चा आगे कि गयी है.
व्यक्तित्व एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है. तथा
इसे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिभाषित करना चाहिए. सामान्यतः व्यक्तित्व का अर्थ
किसी व्यक्ति के बाह्य स्वरुप यानी रंग-रूप,कद,पहनावा
एवं हाव-भाव से लगाया जाता है.
परन्तु यह विचार विज्ञान सम्मत नही है.
व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति के शारीरिक,मानसिक
और सामा
जिक लक्षणों का योग है,जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति एक दुसरे
के समान या एक दुसरे से एकदम भिन्न होता है.
व्यक्तित्व को परिभाषित करते हुए किम्बाल यंग
कहते हैं –
‘व्यक्तित्व एक व्यक्ति की आदतों,मनोवृत्तियों,लक्षणों
तथा विचारो का ऐसा संगठित योग है जो सतही स्तर पर तो विशिष्ट और सामान्य भूमिकाओं
के रूप में परिलक्षित होती है. तथा आन्तरिक रूप में उसकी आत्म-चेतना,मूल्यों
तथा उद्धेश्यों से संगठित होता है.’
इंगर इसे और भी सरल ढंग से परिभाषित करते हुए
कहते हैं –
‘व्यक्तित्व एक व्यक्ति के ऐसे व्यव्हार के
समग्र है जिसके अंतर्गत प्रदत्त प्रवित्तियों की पद्धति, परिस्थितियों का
एक सिलसिला के साथ अन्तः क्रिया करती है.’
इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है की व्यक्तित्व
किसी खास परिस्थिति में हमेशा एक निश्चित ढंग से व्यवहार करता है. यदि व्यव्हार
में अक्सर परिवर्तन होता है तो उसे अव्यवस्थित व्यक्तिव कहा जायगा. समान व्यक्ति
को सामान परिस्थिति में समान ढंग से व्यव्हार करना है,यही समान
व्यक्तित्व की अपेक्षा है.
यह व्यव्हार व्यक्ति की मनोवृत्ति(Attitude),अभिवृत्ति(Motivation),आदतो(Habits),
आदर्शो व् उद्देश्यों (Ideals and
Goals) एवं विशेषताओ(Traits) की अभिव्यक्ति है. यह कोई
जैविक गुण नहीं अपितु मनुष्य के सामाजिक प्राणी
होने का परिचायक है.
प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में उसकी
संस्कृति का प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है. लेकिन इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए
कि व्यक्तित्व का विकास मात्र संस्कृति के ही प्रभाव में होता है. अन्य कारको की
भूमिका कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है.
मुख्य रूप से व्यक्तित्व का विकास चार कारको के
प्रभाव में होता है –
1. जैविक विरासत 2. भौतिक पर्यावरण 3.
समूह
अनुभव 4. संस्कृति.
यहाँ विश्लेषण का विषय मात्र संस्कृति और
व्यक्तित्व का सम्बन्ध ही हैं फिर भी अन्य कारको की संछिप्त चर्चा आवश्यक है.
जैविक विरासत – जैविक विरासत से
आशय व्यक्ति की जैविक क्षमताओं से है अर्थात व्यक्ति का मानसिक स्तर कैसा है,
उसका
शारीरिक स्वाश्थ्य कैसा है इन चीजो का भी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता
है.
भौतिक पर्यारवरण – सोरोकिन आदि विद्वानों
के अनुसार भौतिक पर्यावरण विशेषकर जलवायु का प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ता
है. मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया आदि देशो की ओर से आए आक्रमणकारी भारत के राजाओं,महाराजाओं
की अपेक्षा जादा क्रूर तथा बर्बर थे. उनकी इस बर्बरता का कारण मध्य व् पशिमी एशिया
का कठिन भौतिक पर्यावरण भी था.
समूह अनुभव – व्यक्ति जिस
प्रकार के व्यक्ति समूह में रहता है उसक को भी प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर पड़ता है
. यदि कोई व्यक्ति चोर,डाकू तथा अपराधी स्वाभाव के समूह के साथ रहता
है तो अधिकतर उसका व्यक्तित्व में अपराधी प्रवृत्ति का ही बन जाता है. उदाहरण
स्वरूप ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले है की जो बच्चे जन्म के साथ जानवर के साथ रहे
थे उनका व्यक्तिक संभ्य समाज से इतर हो गया था. चार्ल्स कुले का आत्म दर्पण का
सिद्धांत भी समूह अनुभव के व्यक्त्तित्व पर प्रभाव की पैरवी करता है .
संस्कृति – संस्कृति का
व्यक्तित्व पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है जिस समाज की जैसी संस्कृति होती है उस
समाज के लोगो की मनोवृत्ति,सामाजिक प्रेरणा,इक्षाए,विचार
और आदर्श एवं जीवन मूल्य भी वैसे हो जाते हैं.
रूथ बेनीडिक्ट ने एक अध्यन में यह बताया कि
मेलानीजिया के डोबू लोग यही मानते हैं कि किसी प्रकार के जादू से होता है. वो लोग
अपने आसपास की हर घटना का सम्बन्ध में जादू से जोड़ते हैं तथा हर चीज का कारक जादू
को मानतें हैं इन विश्वासों के के कारण डोबू संस्कृति के लोगो के व्यक्तिव में
ईर्ष्या,द्वेष,अविश्वास,शक,
आदि का प्रभाव अधिक परिलक्षित होता है इस कारण
अन्य व्यक्तियों को एक देबू व्यक्ति शक व् अविश्वास की नजरो से ही देखता है.
दूसरी और बेनिडिक्ट ने ही न्यू मेक्सिको के
जूनी लोगो का अध्य्यन कर उनके विश्वासों और व्यवहारों को डोबू लोगो के ठीक विपरित
पाया.
जहा डोबू लोग बड़े शकी,खतरनाक,अविश्वासी
और धोखेबाज, है. वही दुसरी ओर जूनी लोग सरल,उदार
और विनम्र प्रकार के हैं.
उक्त दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है अलग अलग
सांस्कृतिक मान्यताओं वाले समाजो में रहने वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व अलग अलग
रहता है.
हार्टन एवं हंट ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि –
“व्यक्तित्व सामाजिक स्तर पर स्पष्ट तौर पर
भिन्न-भिन्न होता है,प्रत्येक समाज एक या अधिक व्यक्तिव के बुनियादी
प्रकारों को विकसित करता है. जो उक्त समाज की संस्कृति पर ठीक बैठता है.”
इस तर्क से यह प्रमाणित होता है कि प्रत्येक
संस्कृति में व्यक्तित्व अपने अपने ढंग से प्रभावित होता है. व्यक्तित्व का विकास
निश्चय ही किसी न किसी समाज के सन्दर्भ में होता है. व्यक्तित्व का विकास संस्कृति
से अलग करके नहीं समझा जा सकता.
रॉल्फ लिंटन ने भी अपनी पुस्तक “द
स्टडी ऑफ़ मैन” में कहा है कि- “व्यक्तित्व का
विकास और संस्कृति का अर्जन अलग-अलग प्रक्रियाएं नहीं हैं बल्कि दोनों बिलकुल ही
सामान प्रकार की सिखने की प्रक्रियाएं हैं.”
मानवशास्त्रियों द्वारा जितने भी अध्य्यन हुए
हैं उनमे यह स्पष्ट होता है की व्यक्तित्व के विकास में संस्कृति की भूमिका
सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है. कुछ मनोवैज्ञानिको ने भी अनुभवशास्त्रीय अध्ययन के
आधार पर स्वीकार किया है कि संस्कृति की व्यक्तित्व पर अमिठ छाप पड़ती है.
सामान संस्कृति के लोगो के व्यक्तिव लगभग एक ही
प्रकार का होता है इसी को आधार लेकर अब्राहम कोर्दिनर ने
“बुनियादी
व्यक्तिव प्रारूप “ कि अवधारणा विकसित की.
दूसरी ओर कई बार व्यक्तित्व द्वारा संस्कृति को
प्रभावित करने के भी उदाहरण मिलते हैं इसी अधार पर मैक्स वेबर ने “करिश्माई
व्यक्तित्व” की अवधारणा विकसित की थी. उदाहरण के तौर पर
महात्मा गांधी,स्वामी विवेकानंद,मार्टिन लूथर,इसा
मसीह,गौतम बुद्ध जैसे महान व्यक्तियों ने बड़े स्तर पर समाज की संस्कृति को
प्रभावित् किया.
अंत में यह समझ लेना अवश्यक होगा की संस्कृति
सामान रूप से सभी के व्यक्तित्व का निर्माण नहीं करती. कुछ बातो में किसी का
व्यक्तित किसी के समान हो सकता है तो कुछ बातो में भिन्न भी हो सकता है. ये अवश्य
कहा जा सकता है कि व्यक्तिव के निर्माण में संस्कृति की व्यापक भुमिका है. दूसरी
ओर संस्कृती भी व्यकतिगत विश्वास कि सामूहिक स्वीकृति की परिणिति है.
संस्कृति(culture)
संस्कृति मुख्यतः मनुष्यों द्वारा अर्जित भौतिक
व् अभौतिक तत्वों का का समग्र है.
हर्षकोविड्स के अनुसार – ‘संस्कृति
पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है’
संस्कृति को परिभाषित करते हुए टायलर कहते है –
‘व्यापक अर्थ में संस्कृति वह जटिल समग्र है
जिसमें समाज के एक हिस्से के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित ज्ञान,विश्वास,कला,नैतिकता,विधि-विधान,रीति-रिवाज
के अलावा उसकी अन्य क्षमताए एवं आदतें शामिल हैं.’
इस प्रकार संस्कृति का निर्माण मनुष्यों द्वारा
ही होता है साथ ही साथ मनुष्य इस पर निर्भर भी है.
संस्कृति के अंतर्गत आने वाले तत्वों को दो
भागो में विभाजित किया जा सकता है – 1. अभौतिक तत्व 2. भौतिक
तत्व(सभ्यता)
अभौतिक तत्व- संस्कृति के अभौतिक तत्वों के
अंतर्गत वे अमूर्त तत्व सम्मिलित हैं, जिन्हें हम प्रत्यक्षतः अनुभव नहीं कर
सकते किन्तु वो हमारी संस्कृति का अमिठ हिस्सा हैं तथा हमारे जीवन को व्यापक रूप
से प्रभावित करते हैं.
संस्कृति के अभौतिक तत्व निम्नलिखित हो सकते
हैं –
धर्म,विचारधारा,सामाजिक
रीती-रिवाज,कर्म काण्ड आदि.
भौतिक तत्व – संस्कृति के
भौतिक तत्वों को सभ्यता का परिचायक भी माना जाता है तथा कुछ विद्वान इन्हें सभ्यता
का हिस्सा मानते हैं किन्तु सर्वमान्य रूप से इन्हे भी संस्कृति के अंतर्गत शामिल
किया गया हैं.
संस्कृति के भौतिक पक्षो के अंतर्गत वे मूर्त
वस्तुए शामिल हैं जुन्हे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव कर सकतें हैं
संस्कृति के भौतिक तत्वों के अंतर्गत मानवीय
सुख सुविधा हेतु निर्मित वैज्ञानिक उपकरणों रोज मर्रा की जरुरत की वस्तुवो को
शामिल किया जा सकता है – जैसे मेज,कुर्सी आदि.
संस्कृति की विशेषताएँ –
1. संस्कृति सीखी जाती है
2. संस्कृति संप्रेषित होती है
3. संस्कृति सामाजिक होती है
4. संस्कृति एक आदर्श के रूप में
5. संस्कृति तृप्ति दायक होती है
6. संस्कृति में अनुकूलन की क्षमता होती है
7. संस्कृति समन्वयकारी होती है
8. संस्कृति अधिव्यक्तिक और अधि साव्यवी होती है –
क्रोबर
9. संस्कृति आवश्यकतापूर्ति का साधन हैं